Agyeya Poems in Hindi | अज्ञेय की प्रसिद्ध कविताएँ

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अज्ञेय की प्रसिद्ध कविताएँ

Agyeya Poems in Hindi : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की कविताएँ काफी प्रसिद्ध है हमें अक्सर हिंदी पुस्तको में अज्ञेय की कविताएँ देखने को मिल जाता है अज्ञेय की कविताएँ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन द्वारा लिखा गया है।

सच्चिदानंद जी (7 मार्च, 1911 – 4 अप्रैल, 1987) हिन्दी में अपने समय के सबसे चर्चित कवि, कथाकार, निबन्धकार, पत्रकार, सम्पादक, यायावर, अध्यापक रहे हैं।

बहुत सारे छात्र Agyeya Poems इन्टरनेट पर सर्च करते रहते है बहुत सारे छात्रो को अज्ञेय की सभी प्रसिद्ध कविताएँ ढूढने में दिक्कत होती है।

इसलिए आज हम आपको लिए Agyeya All Poems in Hindi उपलब्ध कराये है जिसमे आपको सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की सभी प्रसिद्ध कविताये देखने को मिलेगी।

मैंने आहुति बन कर देखा – अज्ञेय (1)

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, 
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? 

काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, 
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ? 

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ? 
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ? 

मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ? 
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ? 

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ? 
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ? 

मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने- 
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने ! 

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है- 
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ? 

वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है- 
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है 

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया- 
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है ! 

मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ 
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ 

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने 
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने ! 

भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने- 
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने 

बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937

उधार – अज्ञेय (2)

सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी 
 और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी। 

 मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार 
 चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी? 

मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी— 
तिनके की नोक-भर? 

शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी— 
किरण की ओक-भर? 

मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास, 
लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास। 

 मैने आकाश से मांगी 
 आँख की झपकी-भर असीमता—उधार। 

 सब से उधार मांगा, सब ने दिया । 
 यों मैं जिया और जीता हूँ 

 क्योंकि यही सब तो है जीवन— 
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला, 

गन्धवाही मुक्त खुलापन, 
लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह, 

और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का: 
ये सब उधार पाये हुए द्रव्य। 

 रात के अकेले अन्धकार में 
 सामने से जागा जिस में 

 एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर 
 मुझ से पूछा था: क्यों जी, 

तुम्हारे इस जीवन के 
 इतने विविध अनुभव हैं 

 इतने तुम धनी हो, 
तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—जिसे मैं 

 सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा— 
और वह भी सौ-सौ बार गिन के— 

जब-जब मैं आऊँगा? 
मैने कहा: प्यार? उधार? 

स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे 
 अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार । 

 उस अनदेखे अरूप ने कहा: हाँ, 
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं— 

यह अकेलापन, यह अकुलाहट, 
यह असमंजस, अचकचाहट, 

आर्त अनुभव, 
यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय 

विरह व्यथा, 
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना 

 कि जो मेरा है वही ममेतर है 
 यह सब तुम्हारे पास है 

 तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार— 
मुझे जो चरम आवश्यकता है। 

 उस ने यह कहा, 
पर रात के घुप अंधेरे में 

 मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ: 
अनदेखे अरूप को 

 उधार देते मैं डरता हूँ: 
क्या जाने 

 यह याचक कौन है?

मेरे देश की आँखें – अज्ञेय (3)

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
 पुते गालों के ऊपर

 नकली भवों के नीचे
 छाया प्यार के छलावे बिछाती

 मुकुर से उठाई हुई
 मुस्कान मुस्कुराती

 ये आँखें –
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं…

तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
 शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ –

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं…
वन डालियों के बीच से

 चौंकी अनपहचानी
 कभी झाँकती हैं

 वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,

खेतों के पार
 मेड़ की लीक धारे

 क्षिति-रेखा को खोजती
 सूनी कभी ताकती हैं

 वे आँखें…
उसने

 झुकी कमर सीधी की
 माथे से पसीना पोछा

 डलिया हाथ से छोड़ी
 और उड़ी धूल के बादल के

 बीच में से झलमलाते
 जाड़ों की अमावस में से

 मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
 में टँकी थकी पलकें

 उठायीं –
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं

 मेरे देश की आँखें…
(पुरी-कोणार्क, 2 जनवरी 1980)

नया कवि : आत्म-स्वीकार – अज्ञेय (4)

किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ में जोड़ दिया ।

 कोई मधुकोष काट लाया था,
मैंने निचोड़ लिया ।

 किसी की उक्ति में गरिमा थी
 मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया,

किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
 मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया ।

 कोई हुनरमन्द था:
मैंने देखा और कहा, यों! 

थका भारवाही पाया –
घुड़का या कोंच दिया, क्यों! 

किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली।

 किसी की लगाई लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली ।

 किसी की कली थी
 मैंने अनदेखे में बीन ली,

किसी की बात थी
 मैंने मुँह से छीन ली ।

 यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?

चाहता हूँ आप मुझे
 एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।

 पर प्रतिमा–अरे, वह तो
 जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें ।

देखिये न मेरी कारगुज़ारी – अज्ञेय (5)

अब देखिये न मेरी कारगुज़ारी
 कि मैं मँगनी के घोड़े पर

 सवारी पर ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान
 और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दुकान

 से किराया वसूल कर लाया हूँ ।
 थैली वाले को थैली

 तोड़े वाले को तोड़ा
-और घोड़े वाले को घोड़ा

 सब को सब का लौटा दिया
 अब मेरे पास यह घमंड है

 कि सारा समाज मेरा एहसानमन्द है ।

सत्य तो बहुत मिले – अज्ञेय (6)

खोज़ में जब निकल ही आया 
 सत्य तो बहुत मिले । 

 कुछ नये कुछ पुराने मिले 
 कुछ अपने कुछ बिराने मिले 

 कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले 
 कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले 

 कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले 
 कुछ ईमानदार ख़ानाबदोश मिले । 

 कुछ ने लुभाया 
 कुछ ने डराया 

 कुछ ने परचाया- 
कुछ ने भरमाया- 

सत्य तो बहुत मिले 
 खोज़ में जब निकल ही आया । 

 कुछ पड़े मिले 
 कुछ खड़े मिले 

 कुछ झड़े मिले 
 कुछ सड़े मिले 

 कुछ निखरे कुछ बिखरे 
 कुछ धुँधले कुछ सुथरे 

 सब सत्य रहे 
 कहे, अनकहे । 

 खोज़ में जब निकल ही आया 
 सत्य तो बहुत मिले 

 पर तुम 
 नभ के तुम कि गुहा-गह्वर के तुम 

 मोम के तुम, पत्थर के तुम  तुम किसी देवता से नहीं निकले: 
तुम मेरे साथ मेरे ही आँसू में गले 

 मेरे ही रक्त पर पले 
अनुभव के दाह पर क्षण-क्षण उकसती 

 मेरी अशमित चिता पर 
 तुम मेरे ही साथ जले । 

 तुम- तुम्हें तो भस्म हो 
 मैंने फिर अपनी भभूत में पाया 

 अंग रमाया 
 तभी तो पाया । 

 खोज़ में जब निकल ही आया, 
सत्य तो बहुत मिले- 

एक ही पाया । 
काशी (रेल में), 15 फरवरी, 1954

चांदनी जी लो – अज्ञेय (7)

शरद चांदनी बरसी
 अँजुरी भर कर पी लो

 ऊँघ रहे हैं तारे
 सिहरी सरसी

 ओ प्रिय कुमुद ताकते
 अनझिप क्षण में

 तुम भी जी लो ।
 सींच रही है ओस

 हमारे गाने
 घने कुहासे में

 झिपते
 चेहरे पहचाने

 खम्भों पर बत्तियाँ
 खड़ी हैं सीठी

 ठिठक गये हैं मानों
 पल-छिन

 आने-जाने
 उठी ललक

 हिय उमगा
 अनकहनी अलसानी

 जगी लालसा मीठी,
खड़े रहो ढिंग

 गहो हाथ
 पाहुन मन-भाने,

ओ प्रिय रहो साथ
 भर-भर कर अँजुरी पी लो

 बरसी
 शरद चांदनी 

 मेरा अन्त:स्पन्दन
 तुम भी क्षण-क्षण जी लो !

जो कहा नही गया – अज्ञेय (8)

है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया ।
 उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई,

सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,
बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।

 अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति :
मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई-

फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।
 पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।

 निर्विकार मरु तक को सींचा है
 तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है

 तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,
इसी अहंकार के मारे

 अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ
 उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया ।

 इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया ।
 शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं

 पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
 शायद केवल इतना ही : जो दर्द है

 वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया।
 तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया ।

(रचनाकाल | स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३)

ताजमहल की छाया में – अज्ञेय (9)

मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,
या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।

 साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर-
तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।

 पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे
 या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?

हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-
औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?

हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,
देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये

 व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:
क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!

मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,
पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!

जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का
 प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !

२० दिसम्बर १९३५, आगरा

ये मेघ साहसिक सैलानी – अज्ञेय (10)

ये मेघ साहसिक सैलानी! 
ये तरल वाष्प से लदे हुए 

 द्रुत साँसों से लालसा भरे 
 ये ढीठ समीरण के झोंके 

 कंटकित हुए रोएं तन के 
 किन अदृश करों से आलोड़ित 

 स्मृति शेफाली के फूल झरे! 
झर झर झर झर 

 अप्रतिहत स्वर 
जीवन की गति आनी-जानी! 

झर – 
नदी कूल के झर नरसल 

 झर – उमड़ा हुआ नदी का जल 
 ज्यों क्वारपने की केंचुल में 

 यौवन की गति उद्दाम प्रबल 
 झर – दूर आड़ में झुरमुट की 

 चातक की करूण कथा बिखरी 
 चमकी टिटीहरी की गुहार 

 झाऊ की साँसों में सिहरी 
 मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं 

 वे चकित मृगी सी आँखडि़याँ 
 झर!सहसा दर्शन से झंकृत 

 इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ! 
झर – अंतरिक्ष की कौली भर 

 मटियाया सा भूरा पानी 
 थिगलियाँ भरे छीजे आँचल-सी 

 ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी 
 हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे 

 बढ़ चले अटपटे पैरों से 
 छिन लता-गुल्म छिन वानीरे 

 झर झर झर झर 
 द्रुत मंद स्वर 

 आये दल बल ले अभिमानी 
 ये मेघ साहसिक सैलानी! 

कम्पित फरास की ध्वनि सर सर 
 कहती थी कौतुक से भर कर 

 पुरवा पछवा हरकारों से 
 कह देगा सब निर्मम हो कर 

 दो प्राणों का सलज्ज मर्मर 
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र 

 इन नभ के प्रहरी तारों से! 
ओ कह देते तो कह देते 

 पुलिनों के ओ नटखट फरास! 
ओ कह देते तो कह देते 

 पुरवा पछवा के हरकारों 
 नभ के कौतुक कंपित तारों 

 हाँ कह देते तो कह देते 
 लहरों के ओ उच्छवसित हास! 

पर अब झर-झर 
 स्मृति शेफाली 

 यह युग-सरि का 
 अप्रतिहत स्वर! 

झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे 
 जीवन के अंधड़ में पिटते 

 मरूथल के रेणुक कण रूखे! 
झर – जीवन गति आनी जानी 

 उठती गिरतीं सूनी साँसें 
 लोचन अन्तस प्यासे भूखे 

 अलमस्त चल दिये छलिया से 
 ये मेघ साहसिक सैलानी! 

दिल्ली, 1942

उड़ चल हारिल – अज्ञेय (11)

उड़ चल हारिल लिये हाथ में 
 यही अकेला ओछा तिनका 

 उषा जाग उठी प्राची में 
 कैसी बाट, भरोसा किन का! 

शक्ति रहे तेरे हाथों में 
 छूट न जाय यह चाह सृजन की 

 शक्ति रहे तेरे हाथों में 
 रुक न जाय यह गति जीवन की! 

ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर 
 बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल 

 अनथक पंखों की चोटों से 
 नभ में एक मचा दे हलचल! 

तिनका तेरे हाथों में है 
 अमर एक रचना का साधन 

 तिनका तेरे पंजे में है 
 विधना के प्राणों का स्पंदन! 

काँप न यद्यपि दसों दिशा में 
 तुझे शून्य नभ घेर रहा है 

 रुक न यद्यपि उपहास जगत का 
 तुझको पथ से हेर रहा है! 

तू मिट्टी था, किन्तु आज 
 मिट्टी को तूने बाँध लिया है 

 तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का 
 गुर तूने पहचान लिया है! 

मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
 क्या जीवन केवल मिट्टी है?

तू मिट्टी, पर मिट्टी से
 उठने की इच्छा किसने दी है?

आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
 तू है दुर्निवार हरकारा 

 दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका 
 सूने पथ का एक सहारा! 

मिट्टी से जो छीन लिया है 
 वह तज देना धर्म नहीं है 

 जीवन साधन की अवहेला 
 कर्मवीर का कर्म नहीं है! 

तिनका पथ की धूल स्वयं तू 
 है अनंत की पावन धूली 

 किन्तु आज तूने नभ पथ में 
 क्षण में बद्ध अमरता छू ली! 

ऊषा जाग उठी प्राची में 
 आवाहन यह नूतन दिन का 

 उड़ चल हारिल लिये हाथ में 
 एक अकेला पावन तिनका!

गुरदासपुर, 2 अक्टूबर, 1938

हँसती रहने देना – अज्ञेय (12)

जब आवे दिन 
 तब देह बुझे या टूटे 

 इन आँखों को 
 हँसती रहने देना! 

हाथों ने बहुत अनर्थ किये 
 पग ठौर-कुठौर चले 

 मन के 
 आगे भी खोटे लक्ष्य रहे 

 वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे 
 पर आँखों ने 

 हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का 
 अंधकार भी देखा तो 

 सच-सच देखा 
 इस पार 

 उन्हें जब आवे दिन 
 ले जावे 

 पर उस पार 
 उन्हें 

 फिर भी आलोक कथा 
 सच्ची कहने देना 

 अपलक 
 हँसती रहने देना 

 जब आवे दिन!

वन झरने की धार – अज्ञेय (13)

मुड़ी डगर 
 मैं ठिठक गया 

 वन-झरने की धार 
 साल के पत्ते पर से 

 झरती रही 
 मैने हाथ पसार दिये 

 वह शीतलता चमकीली 

 मेरी अंजुरी 
 भरती रही 

 गिरती बिखरती 
 एक कलकल 

 करती रही 
 भूल गया मैं क्लांति, तृषा, 

अवसाद, 
याद बस एक 

 हर रोम में 
 सिहरती रही 

 लोच भरी एडि़याँ लहराती 
 तुम्हारी चाल के संग-संग 

 मेरी चेतना 
 विहरती रही 

 आह! धार वह वन झरने की 
 भरती अंजुरी से 

 झरती रही 
 और याद से सिहरती 

 मेरी मति 
 तुम्हारी लहराती गति के 

 साथ विचरती रही 
 मैं ठिठक रहा 

 मुड़ गयी डगर 
 वन झरने सी तुम 

 मुझे भिंजाती 
 चली गयीं 

 सो… चली गयीं…

वसंत आ गया – अज्ञेय (14)

मलयज का झोंका बुला गया 
 खेलते से स्पर्श से 

 रोम रोम को कंपा गया 
 जागो जागो 

 जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो 
पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली 

 सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली 
 नीम के भी बौर में मिठास देख 

 हँस उठी है कचनार की कली 
 टेसुओं की आरती सजा के 

 बन गयी वधू वनस्थली 
 स्नेह भरे बादलों से 

 व्योम छा गया 
 जागो जागो 

 जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो 
 चेत उठी ढीली देह में लहू की धार 

 बेंध गयी मानस को दूर की पुकार 
 गूंज उठा दिग दिगन्त 

 चीन्ह के दुरन्त वह स्वर बार 
 सुनो सखि! सुनो बन्धु! 

प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार! 
आज मधुदूत निज 

 गीत गा गया 
जागो जागो 

 जागो सखि वसन्त आ गया, जागो!

शरद – अज्ञेय (15)

सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी 
 गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी 

 दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब 
 ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी 

 बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली 
 शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली 

 झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते 
 झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली 

 बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती 
 उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती 

 गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी 
 शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती 

 मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती 
 कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती! 

घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में 
 गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती! 

साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया 
 हार का प्रतीक – दिया सो दिया, भुला दिया जो किया! 

किन्तु शारद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है 
 प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया! 

इलाहाबाद, 5 सितम्बर, 1948

कुछ प्रसिद्ध कविताएँ :-

मै निशांत सिंह राजपूत इस ब्लॉग का लेखक और संस्थापक हूँ, अगर मै अपनी योग्यता की बात करू तो मै MCA का छात्र हूँ.

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