Jaishankar Prasad Poems : आज इस लेख में आपको जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध कवितायेँ उपलब्ध करायेंगे अक्सर छात्रो को पढाई के दौरान या परीक्षा के दौरान Jaishankar Prasad Poems लिखने को मिलता है, जयशंकर प्रसाद उन कवियों में से एक थे जिन्होंने कलम के दम पर लोगो को जागरूक किया है जयशंकर प्रसाद का जन्म सन 1889 ई० में काशी के एक प्रतिष्टित वैश्य परिवार में हुआ था।
जयशंकर प्रसाद के माता जी का नाम मुन्नी देवी था, बचपन में ही पिता के दिहांत के बाद जयशंकर प्रसाद तम्बाकू व्यापार किये थे बाद में तम्बाकू की प्रसिद्ध व्यापारी बन गये थे पिता के मृत्यु के बाद इन्होने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने घर से अध्धयन किया था।
ये बड़े ही हँसमुख और अच्छे सवभाव के ब्यक्ति थे इन्होने ने घर पर ही हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू व फारसी का शिक्षा ग्रहण किया था।
जयशंकर प्रसाद के कई सारे प्रसिद्ध कवितायेँ मौजूद है जो अक्सर हमें किताबो में देखने को मिलते है यहाँ आपको Jaishankar Prasad Poems in Hindi जारी किये है।
भारत महिमा – जयशंकर प्रसाद (1)
हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार ।
उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।।
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक ।
व्योम-तुम पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।।
विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत ।
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत ।।
बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत ।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत ।।
सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास ।
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।।
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह ।
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।
धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।
जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।
जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से – जयशंकर प्रसाद (2)
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला,
स्वतंत्रता पुकारती॥
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो बढ़े चलो॥
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ,
विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के,
रुको न शूर साहसी॥
अराति सैन्य सिन्धु में, सुबाड़वाग्नि से जलो।
प्रवीर हो जयी बनो, बढ़े चलो बढ़े चलो॥
सब जीवन बीता जाता है – जयशंकर प्रसाद (3)
सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है
समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है
वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
आह ! वेदना मिली विदाई – जयशंकर प्रसाद (4)
आह ! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण,
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई।
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई?
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कब की,
मेरी आशा आह ! बावली
तूने खो दी सकल कमाई।
चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ,
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती,
मेरी करुणा हा-हा खाती,
विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई।
अरुण यह मधुमय देश हमारा – जयशंकर प्रसाद (5)
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा॥
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा॥
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा॥
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा॥
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा॥
आत्मकथ्य – जयशंकर प्रसाद (6)
मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास,
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंग्य मलिन उपहास,
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती,
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही ख़ाली करने वाले,
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं,
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की,
अरे खिल-खिलाकर हँसने वाली उन बातों की,
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया,
जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्दर छाया में,
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की,
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
तुम कनक किरन – जयशंकर प्रसाद (7)
तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?
नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मौन बने रहते हो क्यो?
अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?
बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?
बीती विभावरी जाग री – जयशंकर प्रसाद (8)
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही-
तारा-घट ऊषा नागरी।
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिए,
अलकों में मलयज बंद किए-
तू अब तक सोई है आली!
आँखों में भरे विहाग री।
दो बूँदें – जयशंकर प्रसाद (9)
शरद का सुंदर नीलाकाश
निशा निखरी, था निर्मल हास
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
सुधा सरिता लेती उच्छ्वास
पुलक कर लगी देखने धरा
प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद
सु शीतलकारी शशि आया
सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !
ले चल वहाँ भुलावा देकर – जयशंकर प्रसाद (10)
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।
जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे ।
जिस गम्भीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र-पट चल माया में,
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे !
चित्राधार -जयशंकर प्रसाद (11)
कानन-कुसुम –
पुन्य औ पाप न जान्यो जात।
सब तेरे ही काज करत हैं और न उन्हे सिरात ॥
सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय।
सो तुमरोही काज सँवारत ताकों बड़ो बनाय॥
भारत सिंह शिकारी बन-बन मृगया को आमोद।
सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद॥
स्वारथ औ परमारथ सबही तेरी स्वारथ मीत।
तब इतनी टेढी भृकुटी क्यों? देहु चरण में प्रीत॥
छिपी के झगड़ा क्यों फैलायो?
मन्दिर मसजिद गिरजा सब में खोजत सब भरमायो॥
अम्बर अवनि अनिल अनलादिक कौन भूमि नहि भायो।
कढ़ि पाहनहूँ ते पुकार बस सबसों भेद छिपायो॥
कूवाँ ही से प्यास बुझत जो, सागर खोजन जावै-
ऐसो को है याते सबही निज निज मति गुन गावै॥
लीलामय सब ठौर अहो तुम, हमको यहै प्रतीत।
अहो प्राणधन, मीत हमारे, देहु चरण में प्रीत॥
ऐसो ब्रह्म लेइ का करिहैं?
जो नहि करत, सुनत नहि जो कुछ जो जन पीर न हरिहै॥
होय जो ऐसो ध्यान तुम्हारो ताहि दिखावो मुनि को।
हमरी मति तो, इन झगड़न को समुझि सकत नहि तनिको॥
परम स्वारथी तिनको अपनो आनंद रूप दिखायो।
उनको दुख, अपनो आश्वासन, मनते सुनौ सुनाओ॥
करत सुनत फल देत लेत सब तुमही, यहै प्रतीत।
बढ़ै हमारे हृदय सदा ही, देहु चरण में प्रीत॥
और जब कहिहै तब का रहिहै।
हमरे लिए प्रान प्रिय तुम सों, यह हम कैसे सहिहै॥
तव दरबारहू लगत सिपारत यह अचरज प्रिय कैसो?
कान फुकावै कौन, हम कि तुम! रुचे करो तुम तैसो॥
ये मन्त्री हमरो तुम्हरो कछु भेद न जानन पावें।
लहि प्रसाद तुम्हरो जग में, प्रिय जूठ खान को जावें॥
लहर – जयशंकर प्रसाद (12)
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?
जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे
सुरधनु रंजित नवजलधर से-
भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे
प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे
चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे
अशोक की चिन्ता – जयशंकर प्रसाद (13)
जलता है यह जीवन पतंग
जीवन कितना? अति लघु क्षण,
ये शलभ पुंज-से कण-कण,
तृष्णा वह अनलशिखा बन
दिखलाती रक्तिम यौवन।
जलने की क्यों न उठे उमंग?
हैं ऊँचा आज मगध शिर
पदतल में विजित पड़ा,
दूरागत क्रन्दन ध्वनि फिर,
क्यों गूँज रही हैं अस्थिर
कर विजयी का अभिमान भंग?
इन प्यासी तलवारों से,
इन पैनी धारों से,
निर्दयता की मारो से,
उन हिंसक हुंकारों से,
नत मस्तक आज हुआ कलिंग।
यह सुख कैसा शासन का?
शासन रे मानव मन का!
गिरि भार बना-सा तिनका,
यह घटाटोप दो दिन का
फिर रवि शशि किरणों का प्रसंग!
यह महादम्भ का दानव
पीकर अनंग का आसव
कर चुका महा भीषण रव,
सुख दे प्राणी को मानव
तज विजय पराजय का कुढंग।
संकेत कौन दिखलाती,
मुकुटों को सहज गिराती,
जयमाला सूखी जाती,
नश्वरता गीत सुनाती,
तब नही थिरकते हैं तुरंग।
बैभव की यह मधुशाला,
जग पागल होनेवाला,
अब गिरा-उठा मतवाला
प्याले में फिर भी हाला,
यह क्षणिक चल रहा राग-रंग।
काली-काली अलकों में,
आलस, मद नत पलकों में,
मणि मुक्ता की झलकों में,
सुख की प्यासी ललकों में,
देखा क्षण भंगुर हैं तरंग।
फिर निर्जन उत्सव शाला,
नीरव नूपुर श्लथ माला,
सो जाती हैं मधु बाला,
सूखा लुढ़का हैं प्याला,
बजती वीणा न यहाँ मृदंग।
इस नील विषाद गगन में
सुख चपला-सा दुख घन मे,
चिर विरह नवीन मिलन में,
इस मरु-मरीचिका-वन में
उलझा हैं चंचल मन कुरंग।
आँसु कन-कन ले छल-छल
सरिता भर रही दृगंचल;
सब अपने में हैं चंचल;
छूटे जाते सूने पल,
खाली न काल का हैं निषंग।
वेदना विकल यह चेतन,
जड़ का पीड़ा से नर्तन,
लय सीमा में यह कम्पन,
अभिनयमय हैं परिवर्तन,
चल रही यही कब से कुढंग।
करुणा गाथा गाती हैं,
यह वायु बही जाती है,
ऊषा उदास आती हैं,
मुख पीला ले जाती है,
वन मधु पिंगल सन्ध्या सुरंग।
आलोक किरन हैं आती,
रेश्मी डोर खिंच जाती,
दृग पुतली कुछ नच पाती,
फिर तम पट में छिप जाती,
कलरव कर सो जाते विहंग।
जब पल भर का हैं मिलना,
फिर चिर वियोग में झिलना,
एक ही प्राप्त हैं खिलना,
फिर सूख धूल में मिलना,
तब क्यों चटकीला सुमन रंग?
संसृति के विक्षत पर रे!
यह चलती हैं डगमग रे!
अनुलेप सदृश तू लग रे!
मृदु दल बिखेर इस मग रे!
कर चुके मधुर मधुपान भृंग।
भुनती वसुधा, तपते नग,
दुखिया है सारा अग जग,
कंटक मिलते हैं प्रति पग,
जलती सिकता का यह मग,
बह जा बन करुणा की तरंग,
जलता हैं यह जीवन पतंग।
ले चल वहाँ भुलावा देकर – जयशंकर प्रसाद (14)
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।
जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे ।
जिस गम्भीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र-पट चल माया में,
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।
श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे !
निज अलकों के अंधकार में – जयशंकर प्रसाद (15)
निज अलकों के अंधकार में तुम कैसे छिप जाओगे?
इतना सजग कुतूहल! ठहरो,यह न कभी बन पाओगे !
आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँप कर उन्हें नहीं-
दुख दो इतना, अरे अरुणिमा उषा-सी वह उधर बही.
वसुधा चरण चिह्न सी बनकर यहीं पड़ी रह जावेगी .
प्राची रज कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी.
देख न लूँ, इतनी ही तो है इच्छा?लो सिर झुका हुआ .
कोमल किरन-उंगलियों से ढँक दोगे यह दृग खुला हुआ .
फिर कह दोगे; पहचानो तो मैं हूँ कौन बताओ तो .
किन्तु उनही अधरों से, पहले उनकी हँसी दबाओ तो .
सिहर भरे निज शिथिल मृदुल अंचल को अधरों से पकड़ो.
बेला बीत चली है चंचल बाहु-लता है आ जकड़ो .
तुम हों कौन और मैं क्या हूँ
इसमें क्या है धरा, सुनो,
मानस जलधि रहे चिर चुम्बित-
मेरे क्षितिज! उदार बनो .
मधुप गुनगुनाकर कह जाता – जयशंकर प्रसाद (16)
मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी अपनी,
मुरझा कर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज धनि.
इस गंभीर अनंत नीलिमा में अस्संख्य जीवन-इतिहास-
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास.
तब बही कहते हो-काह डालूं दुर्बलता अपनी बीती !
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे – यह गागर रीती.
किन्तु कहीं ऐसा ना हो की तुम खली करने वाले-
अपने को समझो-मेरा रस ले अपनी भरने वाले
यह विडम्बना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं.
भूलें अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊं मैं.
उज्जवल गाथा कैसे गाऊं मधुर चाँदनी रातों की.
अरे खिलखिला कार हसते होने वाली उन बाओं की.
मिला कहाँ वो सुख जिसका मैं स्वप्न देख कार जाग गया?
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया.
जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में.
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में.
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पन्था की.
सीवन को उधेड कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?
छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूँ?
क्या ये अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म-कथा?
अभी समय बही नहीं- थकी सोई है मेरी मौन व्यथा.
अरी वरुणा की शांत कछार – जयशंकर प्रसाद (17)
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज!
जगत नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप,सुमनों के पुञ्ज!
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार.
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूंजता था जिससे संसार .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
तुम्हारे कुंजो में तल्लीन, दर्शनों के होते थे वाद .
देवताओं के प्रादुर्भाव, स्वर्ग के सपनों के संवाद .
स्निग्ध तरु की छाया में बैठ, परिषदें करती थी सुविचार-
भाग कितना लेगा मस्तिष्क,हृदय का कितना है अधिकार?
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
छोड़कर पार्थिव भोग विभूति, प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार .
पिता का वक्ष भरा वात्सल्य, पुत्र का शैशव सुलभ दुलार .
दुःख का करके सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार .
सुनाने आरण्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़,जगत की ज्वाला करती शांत .
तिमिर का हरने को दुख भार, तेज अमिताभ अलौकिक कांत .
देव कर से पीड़ित विक्षुब्ध, प्राणियों से कह उठा पुकार –
तोड़ सकते हो तुम भव-बंध, तुम्हें है यह पूरा अधिकार .
अरी वरुणा की शांत कछार
तपस्वी के वीराग की प्यार !
छोड़कर जीवन के अतिवाद, मध्य पथ से लो सुगति सुधार.
दुःख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मो का व्यापार .
विश्व-मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद्र .
मिला था वह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चंद्र .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य और उस यश का विमल प्रचार .
सकल वसुधा को दे संदेश, धन्य होता है बारम्बार.
आज कितनी शताब्दियों बाद, उठी ध्वंसों में वह झंकार .
प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगन्त, विश्व वाणी का बने विहार .
हे सागर संगम अरुण नील – जयशंकर प्रसाद (18)
हे सागर संगम अरुण नील !
अतलांत महा गम्भीर जलधि –
तज कर अपनी यह नियत अवधि,
लहरों के भीषण हासों में ,
आकर खारे उच्छवासों में
युग-युग की मधुर कामना के –
बंधन को देता जहाँ ढील .
हे सागर संगम अरुण नील !
पिंगल किरणों-सी मधु-लेखा,
हिम-शैल बालिका को तूने कब देखा !
कलरव संगीत सुनाती ,
किस अतीत युग की गाथा गाती आती .
आगमन अनंत मिलन बनकर-
बिखराता फेनिल तरल खील !
हे सागर संगम अरुण नील !
आकुल अकूल बनने आती,
अब तक तो है वह आती ,
देवलोक की अमृत कथा की माया –
छोड़ हरित कानन की आलस छाया –
विश्राम माँगती अपना .
जिसका देखा था सपना –
निस्सीम व्योम तल नील अंक में ,
अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलिल?
हे सागर संगम अरुण नील !
उस दिन जब जीवन के पथ में – जयशंकर प्रसाद (19)
उस दिन जब जीवन के पथ में,
छिन्न पात्र ले कम्पित कर में ,
मधु-भिक्षा की रटन अधर में ,
इस अनजाने निकट नगर में ,
आ पँहुचा था एक अकिंचन .
उस दिन जब जीवन के पथ में,
लोगों की आँखे ललचाईं ,
स्वयं मानने को कुछ आईं ,
मधु सरिता उफनी अकुलाई ,
देने को अपना संचित धन .
उस दिन जब जीवन के पथ में,
फूलों ने पंखुरियाँ खोलीं ,
आँखें करने लगी ठिठोली ;
हृदयों ने न सम्भाली झोली ,
लुटने लगे विकल पगन मन .
उस दिन जब जीवन के पथ में,
छिन्न पात्र में था भर आता –
वह रस बरबस था न समाता;
स्वयं चकित सा समझ न पाता
कहाँ छिपा था ऐसा मधुवन !
उस दिन जब जीवन के पथ में,
मधु-मंगल की वर्षा होती,
काँटों ने भी पहना मोती
जिसे बटोर रही थी रोती-
आशा, समझ मिला अपना धन .
आँखों से अलख जगाने को – जयशंकर प्रसाद (20)
आँखों से अलख जगाने को,
यह आज भैरवी आई है .
उषा-सी आँखों में कितनी,
मादकता भरी ललाई है .
कहता दिगन्त से मलय पवन
प्राची की लाज भरी चितवन-
है रात घूम आई मधुबन ,
यह आलस की अंगराई है .
लहरों में यह क्रीड़ा-चंचल,
सागर का उद्वेलित अंचल .
है पोंछ रहा आँखें छलछल,
किसने यह चोट लगाई है ?
आह रे,वह अधीर यौवन – जयशंकर प्रसाद (21)
आह रे, वह अधीर यौवन !
मत्त-मारुत पर चढ़ उद्भ्रांत ,
बरसने ज्यों मदिरा अश्रांत-
सिंधु वेला-सी घन मंडली,
अखिल किरणों को ढँककर चली,
भावना के निस्सीम गगन,
बुद्धि-चपला का क्षण –नर्तन-
चूमने को अपना जीवन ,
चला था वह अधीर यौवन!
आह रे, वह अधीर यौवन !
अधर में वह अधरों की प्यास ,
नयन में दर्शन का विश्वास ,
धमनियों में आलिन्गनमयी –
वेदना लिये व्यथाएँ नयी ,
टूटते जिससे सब बंधन ,
सरस सीकर से जीवन-कन,
बिखर भर देते अखिल भुवन,
वही पागल अधीर यौवन !
आह रे, वह अधीर यौवन !
मधुर जीवन के पूर्ण विकास,
विश्व-मधु-ऋतु के कुसुम-विकास,
ठहर, भर आँखों देख नयी-
भूमिका अपनी रंगमयी,
अखिल की लघुता आई बन –
समय का सुन्दर वातायन,
देखने को अदृष्ट नर्तन .
अरे अभिलाषा के यौवन!
आह रे, वह अधीर यौवन !!
तुम्हारी आँखों का बचपन – जयशंकर प्रसाद (22)
तुम्हारी आँखों का बचपन !
खेलता था जब अल्हड़ खेल,
अजिर के उर में भरा कुलेल,
हारता था हँस-हँस कर मन,
आह रे वह व्यतीत जीवन !
तुम्हारी आँखों का बचपन !
साथ ले सहचर सरस वसन्त,
चंक्रमण कर्ता मधुर दिगन्त ,
गूँजता किलकारी निस्वन ,
पुलक उठता तब मलय-पवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन !
स्निग्ध संकेतों में सुकुमार ,
बिछल, चल थक जाता तब हार,
छिडकता अपना गीलापन,
उसी रस में तिरता जीवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन !
आज भी है क्या नित्य किशोर-
उसी क्रीड़ा में भाव विभोर-
सरलता का वह अपनापन-
आज भी है क्या मेरा धन !
तुम्हारी आँखों का बचपन !
अब जागो जीवन के प्रभात – जयशंकर प्रसाद (23)
अब जागो जीवन के प्रभात !
वसुधा पर ओस बने बिखरे
हिमकन आँसू जो क्षोभ भरे
उषा बटोरती अरुण गात !
अब जागो जीवन के प्रभात !
तम नयनों की ताराएँ सब-
मुद रही किरण दल में हैं अब,
चल रहा सुखद यह मलय वात !
अब जागो जीवन के प्रभात !
रजनी की लाज समेटो तो,
कलरव से उठ कर भेंटो तो ,
अरुणाचल में चल रही बात,
अब जागो जीवन के प्रभात !
कोमल कुसुमों की मधुर रात – जयशंकर प्रसाद (24)
कोमल कुसुमों की मधुर रात !
शशि – शतदल का यह सुख विकास,
जिसमें निर्मल हो रहा हास,
उसकी सांसो का मलय वात !
कोमल कुसुमों की मधुर रात !
वह लाज भरी कलियाँ अनंत,
परिमल – घूँघट ढँक रहा दन्त,
कंप-कंप चुप-चुप कर रही बात.
कोमल कुसुमों की मधुर रात !
नक्षत्र-कुमुद की अलस माल,
वह शिथिल हँसी का सजल जाल-
जिसमें खिल खुलते किरण पात .
कोमल कुसुमों की मधुर रात !
कितने लघु-लघु कुडलम अधीर,
गिरते बन शिशिर – सुगंध – नीर ,
हों रहा विश्व सुख – पुलक गात .
कितने दिन जीवन जल-निधि में – जयशंकर प्रसाद (25)
कितने दिन जीवन जल-निधि में –
विकल अनिल से प्रेरित होकर
लहरी, कूल चूमने चल कर
उठती गिरती सी रुक-रुक कर
सृजन करेगी छवि गति-विधि में !
कितनी मधु- संगीत- निनादित
गाथाएँ निज ले चिर-संचित
तस्ल तान गावेगी वंचित !
पागल – सी इस पथ निरवधि में!
दिनकर हिमकर तारा के दल
इसके मुकुर वक्ष में निर्मल
चित्र बनायेंगे निज चंचल !
आशा की माधुरी अवधि में !
मेरी आँखों की पुतली में – जयशंकर प्रसाद (26)
मेरी आँखों की पुतली में
तू बन कर प्रान समां जा रे !
जिससे कण कण में स्पंदन हों,
मन में मलायानिल चंदन हों,
करुणा का नव अभिनन्दन हों-
वह जीवन गीत सुना जा रे !
खिंच जाय अधर पर वह रेखा-
जिसमें अंकित हों मधु लेखा,
जिसको यह विश्व करे देखा,
वह स्मिति का चित्र बना जा रे!
जग की सजल कालिमा रजनी – जयशंकर प्रसाद (27)
जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचन्द्र दिखा जाओ .
ह्रदय अँधेरी झोली इनमे ज्योति भीख देने आओ .
प्राणों की व्याकुल पुकार पर एक मींड़ ठहरा जाओ .
प्रेम वेणु की स्वर- लहरी में जीवन – गीत सुना जाओ .
स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो .
जीवन-धन ! इस जले जगत को वृन्दावन बन जाने दो .
वसुधा के अंचल पर – जयशंकर प्रसाद (28)
वसुधा के अंचल पर
जैसे सरसिज डाल पर .
लालसा निराशा में ढलमल
वेदना और सुख में विह्वल
यह या है रे मानव जीवन?
कितना है रहा निखर.
मिलने चलते अब दो कन,
आकर्षण – मय चुम्बन बन,
दल के नस-नस में बह जाती-
लघु-लघु धारा सुंदर.
हिलता-डुलता चन्चल दल,
ये सब कितने हैं रहे मचल?
कन-कन अनन्त अंबुधि बनते!
कब रूकती लीला निष्ठुर!
तब क्यों रे यह सब क्यों ?
यह रोष भरी लाली क्यों ?
गिरने दे नयनों से उज्जवल
आँसू के कन मनहर-
वसुधा के अंचल पर !
अपलक जगती हो एक रात – जयशंकर प्रसाद (29)
अपलक जगती हो एक रात!
सब सोये हों इस भूतल में,
अपनी निरीहता संबल में,
चलती हों कोई भी न बात!
पथ सोये हों हरयाली में,
हों सुमन सो रहे डाली में,
हों अलस उनींदी नखत पाँत!
नीरव प्रशांत का मौन बना ,
चुपके किसलय से बिछल छना;
थकता हों पंथी मलय- वात.
वक्षस्थल में जो छुपे हुए-
सोते हों ह्रदय अभाव लिए-
उनके स्वप्नों का हों न प्रात.
जगती की मंगलमयी उषा बन – जयशंकर प्रसाद (30)
जगती की मंगलमयी उषा बन,
करुणा उस दिन आई थी,
जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी .
भय- संकुल रजनी बीत गई,
भव की व्याकुलता दूर गई,
घन-तिमिर-भार के लिए तड़ित स्वर्गीय किरण बन आई थी.
खिलती पंखुरी पंकज- वन की,
खुल रही आँख रिषी पत्तन की,
दुख की निर्ममता निरख कुसुम -रस के मिस जो भार आई थी.
कल-कल नादिनी बहती-बहती-
प्राणी दुख की गाथा कहती –
वरूणा द्रव होकर शांति -वारि शीतलता-सी भर लाई थी.
पुलकित मलयानिल कूलो में,
भरता अंजलि था फूलों में ,
स्वागत था अभया वाणी का निष्ठुरता लिये बिदाई थी .
उन शांत तपोवन कुंजो में,
कुटियों, त्रिन विरुध पुंजो में,
उटजों में था आलोक भरा कुसुमित लतिका झुक आई थी.
मृग मधुर जुगाली करते से
खग कलरव में स्वर भरते से,
विपदा से पूछ रहे किसकी पद्ध्वनी सुनने में आई थी.
प्राची का पथिक चला आता ,
नभ पद- पराग से भर जाता,
वे थे पुनीत परमाणु दया ने जिसने सृष्टि बनाई थी.
तप की तारुन्यमयी प्रतिमा ,
प्रज्ञा पारमिता की गरिमा ,
इस व्यथित विश्व की चेतनता गौतम सजीव बन आई थी.
उस पावन दिन की पुण्यमयी,
स्मृति लिये धारा है धैर्यमयी,
जब धर्म- चक्र के सतत – प्रवर्तन की प्रसन्न ध्वनि छाई थी.
युग-युग की नव मानवता को ,
विस्तृत वसुधा की विभुता को ,
कल्याण संघ की जन्मभूमि आमंत्रित करती आई थी.
स्मृति-चिन्हों की जर्जरता में,
निष्ठुर कर की बर्बरता में
भूलें हम वह संदेश न जिसने फेरी धर्म दुहाई थी.
चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर – जयशंकर प्रसाद (31)
चिर संचित कंठ से तृप्त-विधुर
वह कौन अकिंचन अति आतुर
अत्यंत तिरस्कृत अर्थ सदृश
ध्वनि कम्पित करता बार-बार,
धीरे से वह उठता पुकार –
मुझको न मिला रे कभी प्यार .
सागर लहरों सा आलिंगन
निष्फल उठकर गिरता प्रतिदिन
जल वैभव है सीमा-विहीन
वह रहा एक कन को निहार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार.
अकरुण वसुधा से एक झलक
वह स्मृत मिलने को रहा ललक
जिसके प्रकाश में सकल कर्म
बनते कोमल उज्जवल उदार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार
फैलाती है जब उषा राग
जग जाता है उसका विराग
वंचकता, पीड़ा,घ्ह्रिना, मोह
मिलकर बिखेरते अंधकार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार.
ढल विरल डालियाँ भरी मुकुल
झुकती सौरभ रस लिये अतुल
अपने विषद -विष में मूर्छित
काँटों से बिंध कर बार बार,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कही प्यार.
जीवन रजनी का अमल इंदु
न मिला स्वाति का एक बिंदु
जो ह्रदय सीप में मोती बन
पूरा कर देता लक्षहार ,
धीरे से वह उठता पुकार-
मुझको न मिला रे कभी प्यार.
पागल रे! वह मिलता है कब
उसको तो देते ही हैं सब
आँसू के कन-कन से गिन कर
यह विश्व लिये है ऋण उधर,
तू क्यों फिर उठता है पुकार?
मुझको न मिला रे कभी प्यार.
काली आँखों का अंधकार – जयशंकर प्रसाद (32)
काली आँखों का अंधकार
जब हो जाता है वार पार,
मद पिए अचेतन कलाकार
उन्मीलित करता क्षितित पार-
वह चित्र ! रंग का ले बहार
जिसमे है केवल प्यार प्यार!
केवल स्मृतिमय चाँदनी रात,
तारा किरणों से पुलक गात
मधुपों मुकुलों के चले घात,
आता है चुपके मलय वात,
सपनो के बादल का दुलार.
तब दे जाता है बूँद चार.
तब लहरों- सा उठकर अधीर
तू मधुर व्यथा- सा शून्य चीर,
सूखे किसलय- सा भरा पीर
गिर जा पतझर का पा समीर.
पहने छाती पर तरल हार.
पागल पुकार फिर प्यार-प्यार!
अरे कहीं देखा है तुमने – जयशंकर प्रसाद (33)
अरे कहीं देखा है तुमने
मुझे प्यार करने वालों को?
मेरी आँखों में आकर फिर
आँसू बन ढरने वालों को?
सूने नभ में आग जलाकर
यह सुवर्ण-सा ह्रदय गला कर
जीवन-संध्या को नहलाकर
रिक्त जलधि भरने वालों को?
रजनी के लघु-लघु तम कन मे
जगती की ऊष्मा के वन में
उसपर परते तुहिन सघन में
छिप, मुझसे डरने वालों को?
निष्ठुर खेलों पर जो अपने
रहा देखता सुख के सपने
आज लगा है क्यों वह कंपने
देख मौन मरने वाले को?
शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा – जयशंकर प्रसाद (34)
शशि सी वह सुंदर रूप विभा
छाहे न मुझे दिखलाना.
उसकी निर्मल शीतल छाया
हिमकन को बिखरा जाना.
संसार स्वप्न बनकर दिन-सा
आया है नहीं जगाने,
मेरे जीवन के सुख निशीथ!
जाते जाते रुक जाना.
हाँ इन जाने की घड़ियों में,
कुछ ठहर नहीं जाओगे?
छाया पाठ में विश्राम नहीं,
है केवल चलते जाना.
मेरा अनुराग फैलने दो,
नभ के अभिनव कलरव में,
जाकर सूनेपन के तम में –
बन किरण कभी आ जाना.
अरे!आ गई है भूली-सी – जयशंकर प्रसाद (35)
अरे! आ गई है भूली- सी-
यह मधु ऋतु दो दिन को,
छोटी सी कुटिया मैं रच दू,
नयी व्यथा-साथिन को!
वसुधा नीचे ऊपर नभ हो ,
नीड़ अलग सबसे हो,
झारखण्ड के चिर पतझड में
भागो सूखे तिनको!
आशा से अंकुर झूलेंगे
पल्लव पुलकित होंगे,
मेरे किसलय का लघु भव यह,
आह , खलेगा किन को?
सिहर भरी कपती आवेंगी
मलयानिल की लहरें,
चुम्बन लेकर और जगाकर-
मानस नयन नलिन को.
जवा- कुसुम -सी उषा खिलेगी
मेरी लघु प्राची में,
हँसी भरे उस अरुण अधर का
राग रंगेगा दिन को.
अंधकार का जलधि लांघकर
आवेंगी शशि- किरणे,
अंतरिक्ष छिरकेगा कन-कन
निशि में मधुर तुहिन को.
एक एकांत सृजन में कोई
कुछ बाधा मत डालो,
जो कुछ अपने सुंदर से हैं
दे देने दो इनको.
निधरक तूने ठुकराया तब – जयशंकर प्रसाद (36)
निधरक तूने ठुकराया तब
मेरी टूटी मधु प्याली को,
उसके सूखे अधर मांगते
तेरे चरणों की लाली को.
जीवन-रस के बचे हुए कन,
बिखरे अमर में आँसू बन,
वही दे रहा था सावन घन-
वसुधा की हरियाली को .
निदय ह्रदय में हूक उठी क्या,
सोकर पहली चूक उठी क्या,
अरे कसक वह कूक उठी क्या,
झंकृत कर सुखी डाली को?
प्राणों के प्यासे मतवाले-
ओ झंझा से चलने वाले!
ढलें और विस्मृति के प्याले,
सोच न कृति मिटने वाली को.
ओ री मानस की गहराई – जयशंकर प्रसाद (37)
ओ री मानस की गहराइ!
तू सुप्त , शांत कितनी शीतल-
निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल-
नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,
ओ परदर्शिका! चिर चन्चल-
यह विश्व बना है परछाई!
तेरा विषद द्रव तरल-तरल
मूर्छित न रहे ज्यों पिए गरल
सुख लहर उठा री सरल सरल
लघु लघु सुंदर सुंदर अविरल,
तू हँस जीवन की सुघराई!
हँस ,झिलमिल हो ले तारा गन,
हँस, खिलें कुंज में सकल सुमन,
हँस , बिखरें मधु मरंद के कन,
बन कर संसृति के नव श्रम कन,
– सब कह दें वह राका आई!
हँस लें भय शोक प्रेम या रण,
हँस ले कला पट ओढ़ मरण,
हँस ले जीवन के लघु लघु क्षण
देकर निज चुम्बन के मधुकां,
नाविक अतीत की उतराई!
मधुर माधवी संध्या में – जयशंकर प्रसाद (38)
मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त,
विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त,
प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर
नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर
तब क्यों तू अपनी आँखों में जल भरकर उदास होता,
और चाहता इतना सूना-कोई भी न पास होता,
वंचित रे! यह किस अतीत की विकल कल्पना का परिणाम?
किसी नयन की नील दिशा में क्या कर चुका विश्राम?
क्या झंकृत हो जाते हैं उन स्मृति किरणों के टूटे तार?
सूने नभ में स्वर तरंग का फैलाकर मधु पारावार,
नक्षत्रों से जब प्रकाश की रश्मि खेलने आती हैं,
तब कमलों की-सी जब सन्ध्या क्यों उदास हो जाती है?
अंतरिक्ष में अभी सो रही है – जयशंकर प्रसाद (39)
अंतरिक्ष में अभी सो रही है उषा मधुबाला ,
अरे खुली भी अभी नहीं तो प्राची की मधुशाला .
सोता तारक-किरन-पुलक रोमावली मलयज वात,
लेते अंगराई नीड़ों में अलस विहंग मृदु गात ,
रजनि रानी की बिखरी है म्लान कुसुम की माला,
अरे भिखारी! तू चल पड़ता लेकर टुटा प्याला .
गूंज उठी तेरी पुकार-
शेरसिंह का शस्त्र समर्पण – जयशंकर प्रसाद (40)
ले लो यह शस्त्र है
गौरव ग्रहण करने का रहा कर मैं —
अब तो ना लेश मात्र .
लाल सिंह ! जीवित कलुष पंचनद का
देख दिये देता है
सिहों का समूह नख-दंत आज अपना .
अरी, रण – रंगिनी !
कपिशा हुई थी लाल तेरा पानी पान कर.
दुर्मद तुरंत धर्म दस्युओं की त्रासिनी–
निकल,चली जा त प्रतारणा के कर से.
अरी वह तेरी रही अंतिम जलन क्या ?
तोपें मुँह खोले खड़ी देखती थी तरस से
चिलियानवाला में .
आज के पराजित तो विजयी थे कल ही,
उनके स्मर वीर कल में तु नाचती
लप-लप करती थी –जीभ जैसे यम की.
उठी तू न लूट त्रास भय से प्रचार को ,
दारुण निराशा भरी आँखों से देखकर
दृप्त अत्याचार को
एक पुत्र-वत्सला दुराशामयी विधवा
प्रकट पुकार उठी प्राण भरी पीड़ा से —
और भी ;
जन्मभूमि, दलित विकल अपमान से
त्रस्त हो कराहती थी
कैसे फिर रुकती ?
आज विजयी हों तुमऔर हैं पराजित हम
तुम तो कहोगे, इतिहास भी कहेगा यही,
किन्तु यह विजय प्रशंसा भरी मन की–एक छलना है.
वीर भूमि पंचनद वीरता से रिक्त नहीं.
काठ के हों गोले जहाँ
आटा बारूद हों;
और पीठ पर हों दुरंत दंशनो का तरस
छाती लडती हो भरी आग,बाहु बल स
उस युद्ध में तो बस मृत्यु ही विजय है.
सतलज के तटपर मृत्यु श्यामसिंह की–
देखी होगी तुमने भी वृद्ध वीर मूर्ति वह,
तोड़ा गया पुल प्रत्यावर्तन के पथ में
अपने प्रवंचको से .
लिखता अदृष्ट था विधाता वाम कर से .
छल में विलीन बल–बल में विषाद था —
विकल विलास का .
यवनों के हाथों से स्वतंत्रता को छीन कर
खेलता था यौवन-विलासी मत्त पंचनद —
प्रणय-विहीन एक वासना की छाया में .
फिर भी लड़े थे हम निज प्राण-पण से .
कहेगी शतद्रु शत-संगरों की साक्षिणी ,
सिक्ख थे सजीव —
स्वत्व-रक्षा में प्रबुद्ध थे .
जीना जानते थे .
मरने को मानते थे सिक्ख .
किन्तु, आज उनका अतीत वीर-गाथा हुई —
जीत होती जिसकी
वही है आज हारा हुआ.
उर्जस्वित रक्त और उमंग भरा मन था
जिन युवकों के मणिबंधों में अबंध बल
इतना भरा था जो
उलटता शतध्वनियों को.
गोले जिनके थे गेंद
अग्निमयी क्रीड़ा थी
रक्त की नदी में सिर ऊँचा छाती कर
तैरते थे.
वीर पंचनद के सपूत मातृभूमि के
सो गए प्रतारना की थपकी लगी उन्हें
छल-बलिवेदी पर आज सब सो गए.
पुतली प्रणयिनी का बाहुपाश खोलकर ,
दूध भरी दूध-सी दुलार भरी माँ गोद
सूनी कर सो गए .
हुआ है सुना पंचनद.
भिक्षा नहीं मांगता हूँ
आज इन प्राणों की
क्योंकि,प्राण जिसका आहार,वही इसकी
रखवाली आप करता है, महाकाल ही;
शेर पंचनद का प्रवीर रणजीतसिंह
आज मरता है देखो;
सो रहा पंचनद आज उसी शोक में.
यह तलवार लो
ले लो यह थाती है .
पेशोला की प्रतिध्वनि – जयशंकर प्रसाद (41)
१.
अरुण करुण बिम्ब !
वह निर्धूम भस्म रहित ज्वलन पिंड!
विकल विवर्तनों से
विरल प्रवर्तनों में
श्रमित नमित सा –
पश्चिम के व्योम में है आज निरवलम्ब सा .
आहुतियाँ विश्व की अजस्र से लुटाता रहा-
सतत सहस्त्र कर माला से –
तेज ओज बल जो व्दंयता कदम्ब-सा
२.
पेशोला की उर्मियाँ हैं शांत,घनी छाया में-
तट तरु है चित्रित तरल चित्रसारी में.
झोपड़े खड़े हैं बने शिल्प से विषाद के –
दग्ध अवसाद से .
धूसर जलद खंड भटक पड़े हों-
जैसे विजन अनंत में.
कालिमा बिखरती है संध्या के कलंक सी,
दुन्दुभि-मृदंग-तूर्य शांत स्तब्ध,मौन हैं .
३.
फिर भी पुकार सी है गूँज रही व्योम में –
कौन लेगा भार यह ?
कौन विचलेगा नहीं ?
दुर्बलता इस अस्थिमांस की –
ठोंक कर लोहे से,परख कर वज्र से,
प्रलयोल्का खंड के निकष पर कस कर
चूर्ण अस्थि पुंज सा हँसेगा अट्टहास कौन?
साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके
धूलि सी उड़ेगी किस दृप्त फूत्कार से?
४.
कौन लेगा भार यह?
जीवित है कौन?
साँस चलती है किसकी
कहता है कौन ऊँची छाती कर,मैं हूँ –
मैं हूँ- मेवाड़ में,
अरावली श्रृंग-सा समुन्नत सिर किसका?
बोलो कोई बोलो-अरे क्या तुम सब मृत हों ?
५.
आह,इस खेवा की!-
कौन थमता है पतवार ऐसे अंधर में
अंधकार-पारावार गहन नियति-सा-
उमड़ रहा है ज्योति-रेखा-हीन क्षुब्ध हो!
खींच ले चला है –
काल-धीवर अनंत में,
साँस सिफरि सी अटकी है किसी आशा में .
६.
आज भी पेशोला के-
तरल जल मंडलों में,
वही शब्द घूमता सा-
गूँजता विकल है .
किन्तु वह ध्वनि कहाँ ?
गौरव की काया पड़ी माया है प्रताप की
वही मेवाड़!
किन्तु आज प्रतिध्वनि कहाँ है?
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