विदुर नीति श्लोक-अर्थ सहित | Vidur Niti Slokas in Hindi

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विदुर नीति श्लोक

विदुर शब्द का शाब्दिक अर्थ कुशल, बुद्धिमान वमनीषी होता है। हिन्दू ग्रन्थ महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक व हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री, कौरवो व पांडवो के चाचाश्री और धृतराष्ट्र और पाण्डु के भाई थे इनका जन्म अम्बिका की प्रधान दासी के गर्भ से हुआ था।

भगवान् श्री कृष्ण के आधार पर विदुर को धर्म के औतार माना जाता है विदुर बहुत चतुर थे और हमेसा धर्म के राह पर चाहते थे। इस पोस्ट में आपको विदुर नीति श्लोक-अर्थ सहित उपलब्ध कराये जो आपको काफी पसंद आएगा।

विदुर नीति श्लोक-अर्थ सहित

(1)

निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानी न सेवते । 
अनास्तिकः श्रद्धान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥

भावार्थ : सद्गुण, शुभ कर्म, भगवान् के प्रति श्रद्धा और विश्वास, यज्ञ, दान, जनकल्याण आदि, ये सब ज्ञानीजन के शुभ- लक्षण होते हैं ।

(2)

क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता।
यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति-उत्साह, स्वार्थ, उद्दंडता इत्यादि दुर्गुणों की और आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं ।

(3)

यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है ।

(4)

क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्। 
नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥

भावार्थ : ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ्र समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं । किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते है, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते ।

(5)

आत्मज्ञानं समारम्भः तितिक्षा धर्मनित्यता ।
यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : जो अपने योग्यता से भली-भाँति परिचित हो और उसी के अनुसार कल्याणकारी कार्य करता हो, जिसमें दुःख सहने की शक्ति हो, जो विपरीत स्थिति में भी धर्म-पथ से विमुख नहीं होता, ऐसा व्यक्ति ही सच्चा ज्ञानी कहलाता है ।

(6)

यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे। 
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : दूसरे लोग जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है ।

(7)

यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते। 
न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः ॥

भावार्थ : विवेकशील और बुद्धिमान व्यक्ति सदैव ये चेष्ठा करते हैं की वे यथाशक्ति कार्य करें और वे वैसा करते भी हैं तथा किसी वस्तु को तुच्छ समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं ।

(8)

नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् । 
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति दुर्लभ वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रखते, नाशवान वस्तु के विषय में शोक नहीं करते तथा विपत्ति आ पड़ने पर घबराते नहीं हैं, डटकर उसका सामना करते हैं, वही ज्ञानी हैं ।

(9)

निश्चित्वा यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः । 
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति किसी भी कार्य-व्यवहार को निश्चयपूर्वक आरंभ करता है, उसे बीच में नहीं रोकता, समय को बरबाद नहीं करता तथा अपने मन को नियंत्रण में रखता है, वही ज्ञानी है ।

(10)

आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते। 
हितं च नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ ॥

भावार्थ : ज्ञानीजन श्रेष्ट कार्य करते हैं । कल्याणकारी व राज्य की उन्नति के कार्य करते हैं । ऐसे लोग अपने हितौषी मैं दोष नही निकालते ।

(11)

न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते। 
गाङ्गो ह्रद ईवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति न तो सम्मान पाकर अहंकार करता है और न अपमान से पीड़ित होता है । जो जलाशय की भाँति सदैव क्षोभरहित और शांत रहता है, वही ज्ञानी है।

(12)

प्रवृत्तवाक् विचित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्। 
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति बोलने की कला में निपुण हो, जिसकी वाणी लोगों को आकर्षित करे, जो किसी भी ग्रंथ की मूल बातों को शीघ्र ग्रहण करके बता सकता हो, जो तर्क-वितर्क में निपुण हो, वही ज्ञानी है ।

(13)

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा। 
असम्भित्रायेमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति गंथों-शास्त्रों से विद्या ग्रहण कर उसी के अनुरूप अपनी बुद्धि को ढलता है और अपनी बुद्धि का प्रयोग उसी प्राप्त विद्या के अनुरूप ही करता है तथा जो सज्जन पुरुषों की मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करता, वही ज्ञानी है ।

(14)

अश्रुतश्च समुत्रद्धो दरिद्रश्य महामनाः। 
अर्थांश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥

भावार्थ : बिना पढ़े ही स्वयं को ज्ञानी समझकर अहंकार करने वाला, दरिद्र होकर भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाने वाला तथा बैठे-बिठाए धन पाने की कामना करने वाला व्यक्ति मूर्ख कहलाता है ।

(15)

स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति। 
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ डालता है तथा मित्र के कहने पर उसके गलत कार्यो में उसका साथ देता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

(16)

अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। 
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अपने हितैषियों को त्याग देता है तथा अपने शत्रुओं को गले लगाता है और जो अपने से शक्तिशाली लोगों से शत्रुता रखता है, उसे महामूर्ख कहते हैं।

(17)

अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च । 
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति शत्रु से दोस्ती करता तथा मित्र और शुभचिंतकों को दुःख देता है, उनसे ईर्ष्या-द्वेष करता है । सदैव बुरे कार्यों में लिप्त रहता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

(18)

संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते। 
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अनावश्यक कर्म करता है, सभी को संदेह की दृष्टि से देखता है, आवश्यक और शीघ्र करने वाले कार्यो को विलंब से करता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

(19)

अनाहूत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषेते । 
अविश्चस्ते विश्चसिति मूढचेता नराधम: ॥

भावार्थ : मूर्ख व्यक्ति बिना आज्ञा लिए किसी के भी कक्ष में प्रवेश करता है, सलाह माँगे बिना अपनी बात थोपता है तथा अविश्वसनीय व्यक्ति पर भरोसा करता है ।

Vidur Niti in Hindi

(20)

परं क्षिपति दोषेण वर्त्तमानः स्वयं तथा । 
यश्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः ॥

भावार्थ : जो अपनी गलती को दूसरे की गलती बताकर स्वयं को बुद्धिमान दरशाता है तथा अक्षम होते हुए भी क्रुद्ध होता है, वह महामूर्ख कहलाता है ।

(21)

अर्थम् महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा। 
विचरत्यसमुन्नद्धो य: स पंडित उच्यते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति विपुल धन-संपत्ति, ज्ञान, ऐश्वर्य, श्री इत्यादि को पाकर भी अहंकार नहीं करता, वह ज्ञानी कहलाता है ।

(22)

एकः सम्पत्रमश्नाति वस्त्रे वासश्च शोभनम् । 
योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति स्वार्थी है, कीमती वस्त्र, स्वादिष्ट व्यंजन, सुख-ऐश्वर्य की वस्तुओं का उपभोग स्वयं करता है, उन्हें जरूरतमंदों में नहीं बाटँता-उससे बढ़कर क्रूर व्यक्ति कौन होगा?

(23)

एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजन:। 
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥

भावार्थ : व्यक्ति अकेला पाप-कर्म करता है, लेकिन उसके तात्कालिक सुख-लाभ बहुत से लोग उपभोग करते हैं और आनंदित होते हैं । बाद में सुख-भोगी तो पाप-मुक्त हो जाते हैं, लेकिन कर्ता पाप-कर्मों की सजा पाता है ।

(24)

एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता। 
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रम सराजकम् ॥

भावार्थ : कोई धनुर्धर जब बाण छोड़ता है तो सकता है कि वह बाण किसी को मार दे या न भी मारे, लेकिन जब एक बुद्धिमान कोई गलत निर्णय लेता है तो उससे राजा सहित संपूर्ण राष्ट्र का विनाश हो सकता है ।

(25)

एकमेवाद्वितीयम तद् यद् राजन्नावबुध्यसे। 
सत्यम स्वर्गस्य सोपानम् पारवारस्य नैरिव ॥

भावार्थ : नौका में बैठकर ही समुद्र पार किया जा सकता है, इसी प्रकार सत्य की सीढ़ियाँ चढ़कर ही स्वर्ग पहुँचा जा सकता है, इसे समझने का प्रयास करें ।

(26)

एकः क्षमावतां दोषो द्वतीयो नोपपद्यते। 
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ॥

भावार्थ : क्षमाशील व्यक्तियों में क्षमा करने का गुण होता है, लेकिन कुछ लोग इसे उसके अवगुण की तरह देखते हैं । यह अनुचित है ।

(27)

सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्। 
क्षमा गुणों ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ॥

भावार्थ : क्षमा तो वीरों का आभूषण होता है । क्षमाशीलता कमजोर व्यक्ति को भी बलवान बना देती है और वीरों का तो यह भूषण ही है ।

(28)

एको धर्म: परम श्रेय: क्षमैका शान्तिरुक्तमा।
 विद्वैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ॥

भावार्थ : केवल धर्म-मार्ग ही परम कल्याणकारी है, केवल क्षमा ही शांति का सर्वश्रेष्ट उपाय है, केवल ज्ञान ही परम संतोषकारी है तथा केवल अहिंसा ही सुख प्रदान करने वाली है ।

(29)

द्वविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिवं। 
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥

भावार्थ : जिस प्रकार बिल में रहने वाले मेढक, चूहे आदि जीवों को सर्प खा जाता है, उसी प्रकार शत्रु का विरोध न करने वाले राजा और परदेस गमन से डरने वाले ब्राह्मण को यह समय खा जाता है ।

(30)

द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिंल्लोके विरोचते। 
अब्रुवं परुषं कश्चित् असतोऽनर्चयंस्तथा ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति जरा भी कठोर नहीं बोलता हो तथा दुर्जनों का आदर-सत्कार न करता हो, वही इस संसार में सब से आदर-सम्मान पता है।

(31)

द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ। 
यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्चरः ॥

भावार्थ : निर्धनता एवं अक्षमता के बावजूद धन-संपत्ति की इच्छा तथा अक्षम एवं असमर्थ होने के बावजूद क्रोध करना ये दोनों अवगुण शरीर में काँटों की तरह चुभकर उसे सुखाकर रख देते हैं ।

(32)

द्वाविमौ पुरुषौ राजन स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: । 
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति शक्तिशाली होने पर क्षमाशील हो तथा निर्धन होने पर भी दानशील हो – इन दो व्यक्तियों को स्वर्ग से भी ऊपर स्थान प्राप्त होता है ।

(33)

न्यायार्जितस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ । 
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥

भावार्थ : न्याय और मेहनत से कमाए धन के ये दो दुरूपयोग कहे गए हैं- एक, कुपात्र को दान देना और दूसरा, सुपात्र को जरूरत पड़ने पर भी दान न देना ।

(34)

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम नाशनमात्मन: । 
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥

भावार्थ : काम, क्रोध और लोभ-आत्मा को भ्रष्ट कर देने वाले नरक के तीन द्वार कहे गए हैं । इन तीनों का त्याग श्रेयस्कर है ।

(35)

चत्वारि राज्ञा तु महाबलेना वर्ज्यान्याहु: पण्डितस्तानि विद्यात् । 
अल्पप्रज्ञै: सह मन्त्रं न कुर्यात दीर्घसुत्रै रभसैश्चारणैश्च ॥

भावार्थ : अल्प बुद्धि वाले, देरी से कार्य करने वाले, जल्दबाजी करने वाले और चाटुकार लोगों के साथ गुप्त विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए । राजा को ऐसे लोगों को पहचानकर उनका परित्याग कर देना चाहिए।

(36)

चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे । 
वृद्धो ज्ञातिरवसत्रः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या ॥

भावार्थ : परिवार में सुख-शांति और धन-संपत्ति बनाए रखने के लिए बड़े-बूढ़ों, मुसीबत का मारा कुलीन व्यक्ति, गरीब मित्र तथा निस्संतान बहन को आदर सहित स्थान देना चाहिए । इन चारों की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

(37)

पन्चाग्न्यो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत:। 
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ॥

भावार्थ : माता, पिता, अग्नि, आत्मा और गुरु इन्हें पंचाग्नी कहा गया है। मनुष्य को इन पाँच प्रकार की अग्नि की सजगता से सेवा-सुश्रुषा करनी चाहिए । इनकी उपेक्षा करके हानि होती है ।

(38)

पंचैव पूजयन् लोके यश: प्राप्नोति केवलं । 
देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान् ॥

भावार्थ : देवता, पितर, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से पूजा-स्तुति करनी चाहिए । इससे यश और सम्मान प्राप्त होता है ।

(39)

पंचेन्द्रियस्य मर्त्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् । 
ततोऽस्य स्त्रवति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम् ॥

भावार्थ : मनुष्य की पाँचों इंद्रियों में यदि एक में भी दोष उत्पन्न हो जाता है तो उससे उस मनुष्य की बुद्धि उसी प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक (जल भरने वाली चमड़े की थैली) के छिद्र से पानी बाहर निकल जाता है । अर्थात् इंद्रियों को वश में न रखने से हानि होती है ।

(40)

षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता । 
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥

भावार्थ : संसार में उन्नति के अभिलाषी व्यक्तियों को नींद, तंद्रा(ऊँघ), भय, क्रोध, आलस्य तथा देर से काम करने की आदत-इन छह दुर्गुणों को सदा के लिए त्याग देना चाहिए ।

Vidur Niti Quotes

(41)

पंच त्वाऽनुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि । 
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः ॥

भावार्थ : पाँच लोग छाया की तरह सदा आपके पीछे लगे रहते हैं । ये पाँच लोग हैं – मित्र, शत्रु, उदासीन, शरण देने वाले और शरणार्थी ।

(42)

षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति। 
न स पापैः कुतोऽनथैर्युज्यते विजितेन्द्रियः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति मन में घर बनाकर रहने वाले काम, क्रोध, लोभ , मोह , मद (अहंकार) तथा मात्सर्य (ईष्या) नामक छह शत्रुओं को जीत लेता है, वह जितेंद्रिय हो जाता है । ऐसा व्यक्ति दोषपूर्ण कार्यों , पाप-कर्मों में लिप्त नहीं होता । वह अनर्थों से बचा रहता है ।

(43)

षडिमान् पुरुषो जह्यात् भिन्नं नावमिवार्णवे अप्रवक्तारं आचार्यं अनध्यायिनम् ऋत्विजम् । 
आरक्षितारं राजानं भार्यां चाऽप्रियवादिनीं ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्॥

भावार्थ : चुप रहने वाले आचार्य, मंत्र न बोलने वाले पंडित, रक्षा में असमर्थ राजा, कड़वा बोलने वाली पत्नी, गाँव में रहने के इच्छुक ग्वाले तथा जंगल में रहने के इच्छुक नाई – इन छह लोगों को वैसे ही त्याग देना चाहिए जैसे छेदवाली नाव को त्याग दिया जाता है ।

(44)

अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्य प्रियवादिनी च ।
 वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥

भावार्थ : धन प्राप्ति, स्वस्थ जीवन, अनुकूल पत्नी, मीठा बोलने वाली पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र तथा धनाजर्न करने वाली विद्या का ज्ञान से छह बातें संसार में सुख प्रदान करती हैं ।

(45)

षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन। 
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥

भावार्थ : व्यक्ति को कभी भी सच्चाई, दानशीलता, निरालस्य, द्वेषहीनता, क्षमाशीलता और धैर्य – इन छह गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए ।

(46)

दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्। 
मत्तः प्रमत्तः उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ॥ 
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश। 
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डितः ॥

भावार्थ : दस प्रकार के लोग धर्म-विषयक बातों को महत्त्वहीन समझते हैं । ये लोग हैं – नशे में धुत्त व्यक्ति, लापरवाह, पागल, थका-हारा व्यक्ति, क्रोध, भूख से पीड़ित, जल्दबाज, लालची, डरा हुआ तथा काम पीड़ित व्यक्ति । विवेकशील व्यक्तियों को ऐसे लोगों की संगति से बचना चाहिए । ये सभी विनाश की और ले जाते हैं ।

(47)

आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सद्भिर्मनुष्यैस्सह संप्रयोगः।
 स्वप्रत्यया वृत्तिरभीतवासः षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥

भावार्थ : स्वस्थ रहना, उऋण रहना, परदेश में न रहना, सज्जनों के साथ मेल-जोल, स्वव्यवसाय द्वारा आजीविका चलाना तथा भययुक्त जीवनयापन – ये छह बातें सांसारिक सुख प्रदान करती हैं ।

(48)

ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।
 परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥

भावार्थ : ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला तथा दूसरों के भाग्य पर जीवन बिताने वाला- ये छह तरह के लोग संसार में सदा दुःखी रहते हैं ।

(49)

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च। 
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥

भावार्थ : बुद्धि, उच्च कुल, इंद्रियों पर काबू, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, कम बोलना, यथाशक्ति दान देना तथा कृतज्ञता – ये आठ गुण मनुष्य की ख्याति बढ़ाते हैं ।

(50)

सुदुर्बलं नावजानाति कञ्चित् युक्तो रिपुं सेवते बुद्धिपूर्वम् । 
न विग्रहं रोचयते बलस्थैः काले च यो विक्रमते स धीरः ॥

भावार्थ : जो किसी कमजोर का अपमान नहीं करता, हमेशा सावधान रहकर बुद्धि-विवेक द्वारा शत्रुओं से निबटता है, बलवानों के साथ जबरन नहीं भिड़ता तथा उचित समय पर शौर्य दिखाता है, वही सच्चा वीर है ।

(51)

प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि- दुद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः। 
दुःखं च काले सहते महात्मा धुरन्धरस्तस्य जिताः सप्तनाः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति मुसीबत के समय भी कभी विचलित नहीं होता, बल्कि सावधानी से अपने काम में लगा रहता है, विपरीत समय में दुःखों को हँसते-हँसते सह जाता है, उसके सामने शत्रु टिक ही नहीं सकते; वे तूफान में तिनकों के समान उड़कर छितरा जाते हैं ।

(52)

अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धि परदाराभिमर्शम् ।
 दम्भं स्तैन्य पैशुन्यं मद्यपानं न सेवते यश्च सुखी सदैव ॥

भावार्थ :जो व्यक्ति अकारण घर के बाहर नहीं रहता ,बुरे लोगों की सोहबत से बचता है ,परस्त्री से संबध नहीं रखता ;चोरी ,चुगली ,पाखंड और नशा नहीं करता -वह सदा सुखी रहता है ।

(53)

न संरम्भेणारभते त्रिवर्गमाकारितः शंसति तत्त्वमेव । 
न मित्रार्थरोचयते विवादं नापुजितः कुप्यति चाप्यमूढः ॥

भावार्थ : जो जल्दबाजी में धर्म ,अर्थ तथा काम का प्रारंभ नहीं करता ,पूछने पर सत्य ही उद् घाटित करता है, मित्र के कहने पर विवाद से बचता है ,अनादर होने पर भी दुःखी नहीं होता। वही सच्चा ज्ञानवान व्यक्ति है ।

(54)

न योऽभ्यसुयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति ।
नात्याह किञ्चित् क्षमते विवादं सर्वत्र तादृग् लभते प्रशांसाम् ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति किसी की बुराई नही करता ,सब पर दया करता है ,दुर्बल का भी विरोध नही करता ,बढ-चढकर नही बोलता ,विवाद को सह लेता है ,वह संसार मे कीर्ति पाता है ।

(55)

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्त्यान्। 
न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियंसदा तं कुरुते जनो हि ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति शैतानों जैसा वेश नहीं बनाता ,वीर होने पर भी अपनी वीरता की बड़ाई नही करता ,क्रोध् से विचलित होने पर भी कड़वा नहीं बोलता ,उससे सभी प्रेम करते हैं ।

(56)

न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति । 
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्याः ॥

भावार्थ : जो ठंडी पड़ी दुश्मनी को फिर से नहीं भड़काता, अहंकाररहित रहता है , तुच्छ आचरण नहीं करता ,स्वयं को मुसीबत में जानकर अनुचित कार्य नहीं करता,ऐसे व्यक्ति को संसार में श्रेष्ठ कहकर विभूषित किया जाता है।

(57)

देशाचारान् समयाञ्चातिधर्मान् बुभूषते यः स परावरज्ञः । 
स यत्र तत्राभिगतः सदैव महाजनस्याधिपत्यं करोति ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति लोक -व्यवहार ,लोकाचार ,समाज मे व्याप्त जातियों और उनके धर्मों को जान लेता है उसे ऊँच-नीच का ज्ञान हो जाता है। वह जहाँ भी जाता है अपने प्रभाव से प्रजा पर अधिकार कर लेता है ।

(58)

दम्भं मोहं मात्सर्यं पापकृत्यं राजद्धिष्टं पैशुनं पूगवैरम् ।
मत्तोन्मत्तैदुर्जनैश्चापि वादं यः प्रज्ञावान् वर्जयेत् स प्रानः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अहंकार, मोह, मत्सर्य (ईष्र्या ), पापकर्म, राजद्रोह, चुगली समाज से वैर -भाव, नशाखोरी, पागल तथा दुष्टों से झगड़ा बंद कर देता है वही बुद्धिमान एवं श्रेष्ठ है ।

(59)

दानं होमं दैवतं मङ्गलानि प्रायश्चित्तान् विविधान् लोकवादान् । 
एतानि यः कुरुत नैत्यकानि तस्योत्थानं देवता राधयन्ति ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति दान, यज्ञ, देव -स्तुति, मांगलिक कर्म, प्रायश्चित तथा अन्य सांसरिक कार्यों को यथाशक्ति नियमपूर्वक करता है ,देवी-देवता स्वयं उसकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।

Vidur Niti in Hindi

(60)

समैर्विवाहः कुरुते न हीनैः समैः सख्यं व्यवहारं कथां च ।
गुणैर्विशिष्टांश्च पुरो दधाति विपश्चितस्तस्य नयाः सुनीताः॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अपनी बराबरी के लोगों के साथ विवाह, मित्रता, व्यवहार तथा बोलचाल रखता है, गुणगान लोगों को सदा आगे रखता है, वह श्रेष्ठ नीतिवान कहलाता है ।

(61)

मित्रं भुड्क्ते संविभज्याश्रितेभ्यो मितं स्वपित्यमितं कर्म कृत्वा । 
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः संस्तमात्मवन्तं प्रजहत्यनर्थाः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अपने आश्रित लोगों को बाँटकर स्वयं थोड़े से भोजन से ही संतुष्ट हो जाता है, कड़े परिश्रम के बाद थोड़ा सोता है तथा माँगने पर शत्रुओं को भी सहायता करता है -अनर्थ ऐसे सज्जन के पास भी नहीं भटकते ।

(62)

चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किञ्चित् । 
मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च नाल्पोऽप्यस्य च्यवते कश्चिदर्थः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अपने अनुकूल तथा दूसरों के विरुद्ध कार्यों को इस प्रकार करता है कि लोगों को उनकी भनक तक नहीं लगती। अपनी नीतियों को सार्वजनिक नहीं करता ,इससे उसके सभी कार्य सफल होते हैं।

(63)

यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः सत्यो मृदुर्मानकृच्छुद्धभावः ।
अतीव स ज्ञायते ज्ञातिमध्ये महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति सभी लोगों के काम को तत्पर, सच्चा, दयालु, सभी का आदर करने वाला तथा सात्विक स्वभाव का होता है ,वह संसार में श्रेष्ठ रत्न की भाँति पूजा जाता है।

(64)

य आत्मनाऽपत्रपते भृशं नरः स सर्वलोकस्य गुरुभर्वत्युत । 
अनन्ततेजाः सुमनाः समाहितः स तेजसा सूर्य इवावभासते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति अपनी मर्यादा की सीमा को नहीं लाँघता ,वह पुरुषोत्तम समझा जाता है। वह अपने सात्विक प्रभाव , निर्मल मन और एकाग्रता के कारण संसार में सूर्य के समान तेजवान होकर ख्याति पाता है।

(65)

वनस्पतेरपक्वानि फलानि प्रचिनोति यः । 
स नाप्नोति रसं तेभ्यो बीजं चास्य विनश्यति ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति किसी वृक्ष के कच्चे फल तोड़ता है ,उसे उन फलों का रस तो नहीं मिलता है। उलटे वृक्ष के बीज भी नष्ट होते हैं ।

(66)

पुष्पं पुष्पं विचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत् । 
मालाकार इवारामे न यथाङ्गरकारकः ॥

भावार्थ : जैसे बगीचे का माली पौधों से फूल तोड़ लेता है ,पौधों को जड़ों से नहीं काटता , इसी प्रकार राजा प्रजा से फूलों के समान कर ग्रहण करे। कोयला बनाने वाले की तरह उसे जड़ से न काटे।

(67)

किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः । 
इति कर्माणि सञ्चिन्त्य कुरयड् कुर्याद् वा पुरुषो न वा॥

भावार्थ : काम को करने से पहले विचार करें कि उसे करने से क्या लाभ होगा तथा न करने से क्या हानि होगी ? कार्य के परिणाम के बारे में विचार करके कार्य करें या न करें। लेकिन बिना विचारे कोई कार्य न करें।

(68)

अनारभ्या भवन्त्यर्थाः केचित्रित्यं तथाऽगताः । 
कृतः पुरुषकारो हि भवेद् येषु निरर्थकः ॥

भावार्थ : साधारण और बेकार के कामों से बचना चाहिए। क्योकि उद्देशहीन कार्य करने से उन पर लगी मेहनत भी बरबाद हो जाती है।

(69)

प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः। 
न तं भर्तारमिच्छनित षण्ढं पतिमिव स्त्रियः ॥

भावार्थ : जो थोथी बातों पर खुश होता हो तथा अकारण ही क्रोध करता हो ऐसे व्यक्ति को प्रजा राजा नहीं बनाना चाहती , जैसे स्त्रियाँ नपुंसक व्यक्ति को पति नहीं बनाना चाहती।

(70)

कांश्चिदर्थात्ररः प्राज्ञो लघुमूलान्महाफलान्। 
क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान् ॥

भावार्थ : जिसमे कम संसाधन लगे ,लेकिन उसका व्यापक लाभ हो -ऐसे कार्य को बुद्धिमान व्यक्ति शीघ्र आरंभ करता है और उसे निर्विघ्न पूरा करता है।

(71)

यस्मात् त्रस्यन्ति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव। 
सागरान्तामपि महीं लब्ध्वा स परिहीयते ॥

भावार्थ : जैसे शिकारी से हिरण भयभीत रहते हैं ,उसी प्रकार जिस राजा से उसकी प्रजा भयभीत रहती है ,फिर चाहे वह पूरी पृथ्वी का ही स्वामी क्यों न हो ,प्रजा उसका परित्याग कर देती है।

(72)

पितृपैतामहं राज्यं प्राप्तवान् स्वेन कर्मणा। 
वायुरभ्रमिवासाद्य भ्रंशयत्यनये स्थितः ॥

भावार्थ : अन्याय के मार्ग पर चलने वाला राजा विरासत में मिले राज्य को उसी प्रकार से नष्ट कर देता है जैसे तेज हवा बादलों को छिन्न -भिन्न कर देती है।

(73)

अप्युन्मत्तात् प्रलपतो बालाच्च परिजल्पतः। 
सर्वतः सारमादद्यात् अश्मभ्य इव काञ्जनम् ॥

भावार्थ : व्यर्थ बोलनेवाले ,मंदबुद्धि तथा बे -सिर -पैर की बोलनेवाले बच्चों से भी सारभूत बातों को ग्रहन कर लेना चाहिए जैसे पत्थरों में से सोने को ग्रहन कर लिया जाता है।

(74)

सुव्याहृतानि सुक्तानि सुकृतानि ततस्ततः। 
सञ्चिन्वन् धीर आसीत् शिलाहरी शिलं यथा ॥

भावार्थ : जैसे साधु -सन्यासी एक -एक दाना जोड़कर जीवन निर्वाह करते हैं ,वैसे ही सज्जन पुरुष को चाहिए कि महापुरुषों की वाणी ,सूक्तियों तथा सत्कर्मों के आलेखों का संकलन करते रहना चाहिए।

(75)

गन्धेन गावः पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणाः। 
चारैः पश्यन्ति राजानश्चक्षुर्भ्यामितरे जनाः ॥

भावार्थ : गायें गंध से देखती हैं ,ज्ञानी लोग वेदों से ,राजा गुप्तचरों से तथा जनसामान्य नेत्रों से देखते है।

(76)

यदतप्तं प्रणमति न तत् सन्तापयन्त्यपि। 
यश्च स्वयं नतं दारुं न तत् सत्रमयन्त्यपि ॥

भावार्थ : जो धातु बिना गरम किए मुड़ जाती है ,उन्हें आग में तपने का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जो लकड़ी पहले से झुकी होती है ,उसे कोई नहीं झुकाता ।

(77)

एतयोपमया धीरः सत्रमेत बलीयसे । 
इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे ॥

भावार्थ : बुद्धिमान वही है जो अपने से अधिक बलवान के सामने झुक जाए। और बलवान को देवराज इंद्र की पदवी दी जाती है। अतः इंद्र के सामने झुकना देवता को प्रणाम करने के समान है।

(78)

पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः । 
पतयो बान्धवाः स्त्रीणां ब्राह्मणा वेदबान्धवाः ॥

भावार्थ : पशुओं के रक्षक बादल होते है ,राजा के रक्षक उसके मंत्री ,पत्नियों के रक्षक उनके पति तथा वेदो के रक्षक ब्राह्मण (ज्ञानी पुरुष ) होते हैं ।

(79)

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते । 
मृजया रक्ष्यते रुपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥

भावार्थ : धर्म की रक्षा सत्य से होती है ,विद्या की रक्षा अभ्यास से ,सौंदर्य की रक्षा स्वच्छता से तथा कुल की रक्षा सदाचार से होती है।

(80

मानेन रक्ष्यते धान्यमश्चान् रक्षत्यनुक्रमः । 
अभीक्ष्णदर्शनं ग्राश्च स्त्रियो रक्ष्याः कुचैलतः ॥

भावार्थ : अनाज की रक्षा तौल से होती है ,घोड़े की रक्षा उसे लोट-पोट कराते रहने से होती है , सतत् देखरेख से गायों की रक्षा होती है और सादा वस्त्रों से स्त्रियों की रक्षा होती है।

Vidur Niti Slokas in Hindi

(81)

न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति में मतिः । 
अन्तेष्वपि हि जातानां वृतमेव विशिष्यते ॥

भावार्थ : ऊँचे या नीचे कुल से मनुष्य की पहचान नहीं हो सकती। मनुष्य की पहचान उसके सदाचार से होती है ,भले ही वह निचे कुल में ही क्यों न पैदा हुआ हो ।

(82)

य ईर्षुः परवित्तेषु रुपे वीर्ये कुलान्वये । 
सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति दूसरों की धन -सम्पति ,सौंदर्य ,पराक्रम ,उच्च कुल ,सुख ,सौभाग्य और सम्मान से ईर्ष्या व द्वेष करता है वह असाध्य रोगी है। उसका यह रोग कभी ठीक नहीं होता।

(83)

अकार्यकरणाद् भीतः कार्याणान्च विवर्जनात् । 
अकाले मन्त्रभेदाच्च येन माद्देन्न तत् पिबेत् ॥

भावार्थ : व्यक्ति को नशीला पेय नहीं पीना चाहिए ,आयोग्य कार्य नहीं करना चाहिए। योग्य कार्य करने में आलस्य नहीं करना चाहिए तथा कार्य सिद्ध होने से पहले उद्घाटित करने से बचना चाहिए।

(84)

विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः । 
मदा एतेऽवलिप्तानामेत एव सतां दमाः ॥

भावार्थ : विद्या का अहंकार ,धन -सम्पति का अहंकार ,कुलीनता का अहंकार तथा सेवकों के साथ का अहंकार बुद्धिहीनों का होता है ,सदाचारी तो दमन द्वारा इनमें भी शांति खोज लेते है।

(85)

गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एव सतां गतिः। 
असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः ॥

भावार्थ : सज्जन पुरुष सबका सहारा होते है। सज्जन बुद्धिमानों का सहारा होते हैं ,सज्जनों का सहारा होते हैं , दुर्जनों का सहारा होते है लेकिन दुर्जन कभी सज्जनों का सहारा नहीं हो सकते।

(86)

जिता सभा वस्त्रवता मिष्टाशा गोमता जिता। 
अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जितम् ॥

भावार्थ : सुंदर वस्त्र वाला व्यक्ति सभा को जीत लेता है जिस व्यक्ति के पास गायें हो ,वह मिठाई खाने की इच्छा को जीत लेता है ; सवारी से चलने वाला व्यक्ति मार्ग को जीत लेता है तथा शीलवान् व्यक्ति सारे संसार को जीत लेता है।

(87)

शीलं प्रधानं पुरुषे तद् यस्येह प्रणश्यति। 
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः ॥

भावार्थ : शील ही मनुष्य का प्रमुख गुण है। जिस व्यक्ति का शील नष्ट हो जाता है -धन ,जीवन और रिश्तेदार उसके किसी काम के नहीं रहते; अर्थात उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।

(88)

प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते। 
जीर्यन्त्यपि हि काष्ठानि दरिद्राणां महीपते ॥

भावार्थ : प्राय :धनवान लोगो में खाने और पचाने की शक्ति नहीं होती और निर्धन लकड़ी खा लें तो उसे भी पचा लेते हैं।

(89)

इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः। 
तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव ॥

भावार्थ : इंद्रियाँ यदि वश में न हो तो ये विषय -भोगों में लिप्त हो जाती हैं। उससे मनुष्य उसी प्रकार तुच्छ हो जाता है ,जैसे सूर्य के आगे सभी ग्रह।

(90)

रथः शरीरं पुरुषस्य राजत्रात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्चाः। 
तैरप्रमत्तः कुशली सदश्वैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः ॥

भावार्थ : यह मानव -शरीर रथ है ,आत्मा (बुद्धि ) इसका सारथी है ,इंद्रियाँ इसके घोड़े हैं। जो व्यक्ति सावधानी ,चतुराई और बुद्धिमानी से इनको वश में रखता है वह श्रेष्ठ रथवान की भांति संसार में सुखपूर्वक यात्रा करता है।

(91)

एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम्।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ॥

भावार्थ : जैसे बेकाबू और अप्रशिक्षित घोड़े मूर्ख सारथी को मार्ग में ही गिराकर मार डालते हैं ;वैसे ही यदि इंद्रियों को वश में न किया जाए तो ये मनुष्य की जान की दुश्मन बन जाती हैं।

(92)

अनर्थंमर्थंतः पश्यत्रर्थं चैवाप्यनर्थतः। 
इन्द्रियैरजितैर्बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ॥

भावार्थ : अज्ञानी लोग इंद्रिय -सुख को ही श्रेष्ठ समझकर आनंदित होते है। इस प्रकार के अनर्थ को अर्थ और अर्थ को अनर्थ कर देते हैं ,और अनायास ही नाश के मार्ग पर चल पड़ते हैं।

(93)

आत्मनाऽऽत्मानमन्विच्छेन्मनोबुद्धीन्द्रियैर्यतैः। 
आत्मा ह्वोवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

भावार्थ : मन -बुद्धि तथा इंद्रियों को आत्म -नियंत्रित करके स्वयं ही अपने आत्मा को जानने का प्रयत्न करें , क्योंकि आत्मा ही हमारा हितैषी और आत्मा ही हमारा शत्रु है।

(94)

समवेक्ष्येह धर्माथौं सम्भारान् योऽधिगच्छति। 
स वै सम्भृतसम्भारः सततं सुखमेधते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति धर्म और अर्थ के बारे में भली-भाँति विचार करके न्यायोचित रूप से अपनी समृद्धि के साधन जुटाता है , उसकी समृद्धि बराबर बढ़ती रहती है और वह सुख साधनों का भरपूर उपभोग करता है।

(95)

असन्त्यागात् पापकृतामपापांस्तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्। 
शुष्केणार्दंदह्यते मिश्रभावात्तस्मात् पापैः सह सन्धि नकुर्य्यात् ॥

भावार्थ : दुर्जनों की संगति के कारण निरपराधी भी उन्हीं के समान दंड पाते है ;जैसे सुखी लकड़ियों के साथ गीली भी जल जाती है। इसलिए दुर्जनों का साथ मैत्री नहीं करनी चाहिए।

(96)

आक्रोशपरिवादाभ्यां विहिंसन्त्यबुधा बुधान्। 
वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्यते ॥

भावार्थ : मुर्ख लोग ज्ञानियों को बुरा-भला कहकर उन्हें दुःख पहुँचाते हैं। इस पर भी ज्ञानीजन उन्हें माफ कर देते हैं। माफ करने वाला तो पाप से मुक़्त हो जाता है और निंदक को पाप लगता है।

(97)

हिंसाबबलमसाधूनां राज्ञा दण्डविधिर्बलम्। 
शुश्रुषा तु बलं स्त्रीणां क्षमा गुणवतां बलम्॥

भावार्थ : हिंसा दुष्ट लोगों का बल है ,दंडित करना राजा का बल है ,सेवा करना स्त्रियों का बल है और क्षमाशीलता गुणवानों का बल है।

(98)

अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता। 
सैव दुर्भाषिता राजनर्थायोपपद्यते ॥

भावार्थ : मीठे शब्दों में बोली गई बात हितकारी होती है और उन्नति के मार्ग खोलती है लेकिन यदि वही बात कटुतापूर्ण शब्दों में बोली जाए तो दुःखदायी होती है और उसके दूरगामी दुष्परिमाण होते हैं

(99)

रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्। 
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम् ॥

भावार्थ : बाणों से छलनी और फरसे से कटा गया जंगल पुनः हरा -भरा हो जाता है लेकिन कटु -वचन से बना घाव कभी नहीं भरता।

(100)

वाक्सायका वदनात्रिष्पतन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि।
 परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान् पण्डितो नावसृजेत् परेभ्यः ॥

भावार्थ : शब्द रूपी बाण सीधा दिल पर जाकर लगता है जिससे पीड़ित व्यक्ति दिन -रात घुलता रहता है। इसलिए ज्ञानयों को चाहिए कि कटु वचन बोलने से बचें।

Vidur Niti Slokas Sanskrit

(101)

यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय प्रराभवम्। 
बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽवाचीनानि पश्यति ॥

भावार्थ : जिसके भाग्य में पराजय लिखी हो, ईश्वर उसकी बुद्धि पहले ही हर लेते हैं, इससे उस व्यक्ति को अच्छी बातें नहीं दिखाई देती, वह केवल बुरा-ही-बुरा देख पाता है।

(102)

बुद्धो कलूषभूतायां विनाशे प्रत्युपस्थिते। 
अनयो नयसङ्कशो हृदयात्रावसर्पति ॥

भावार्थ : विनाशकाल के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है। ऐसे व्यक्ति के मन में न्याय के स्थान पर अन्याय घर कर लेता है। वह अन्याय के आसरे ही सब निर्णय लेता है।

(103)

नैनं छन्दांसि वृजनात् तारयन्ति मायाविंन मायया वर्तमानम्।
 नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाश्छन्दांस्येनं प्रजहत्यन्तकाले ॥

भावार्थ : दुर्जन और कपटी व्यवहार करने वाले व्यक्ति की उसके पुण्य कर्म भी रक्षा नहीं कर पाते। जैसे पंख निकल आने पर पंक्षी घोसले को छोड़ देते हैं; वैसे ही अंत समय में पुण्य कर्म भी उसका साथ छोड़ देते हैं।

(104)

सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्व शलाकधूर्त्त च चिकित्सकं च। 
अरिं च मित्रं च कुशीलवं च नैतान्साक्ष्ये त्वधिकुर्वीतसप्त॥

भावार्थ : हस्तरेखा व शरीर के लक्षणों के जानकार को ,चोर व चोरी से व्यापारी बने व्यक्ति को, जुआरी को, चिकित्सक को ,मित्र को तथा सेवक को -इन सातों को कभी अपना गवाह न बनाएँ, ये कभी भी पलट सकते हैं।

(105)

जरा रुपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया। 
क्रोधः श्रियं शिलमनार्यसेवा हृियं कामः सर्वमेवाभिमानः॥

भावार्थ : वृद्धावस्था खूबसूरती को नष्ट कर देती है, उम्मीद धैर्य को, मृत्यु प्राणों को, निंदा धर्मपूर्ण व्यवहार को, क्रोध आर्थिक उन्नति को, दुर्जनों की सेवा सज्जनता को, काम -भाव लाज -शर्म को तथा अहंकार सबकुछ नष्ट कर देता है।

(106)

यज्ञो दानमध्ययनं तपश्च चत्वार्येतान्यन्वेतानि सणि। 
दमः सत्यमार्जवमानृशंस्यं चत्वार्येतान्यनुयान्ति सन्तः ॥

भावार्थ : यज्ञ, दान, अध्ययन तथा तपश्चर्या -ये चार गुण सज्जनों के साथ रहते हैं और इंद्रियदमन, सत्य। सरलता तथा कोमलता -इन चार गुणों का सज्जन पुरुष अनुसरण करते हैं।

(107)

इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा घृणा। 
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृत ॥

भावार्थ : यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और लोभ विमुखता -धर्म के ये आठ मार्ग बताए गए हैं। इन पर चलने वाला धर्मत्मा कहलाता है।

(108)

सत्यं रुपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलं बलं धनम्। 
शौर्यं य च चित्रभाष्यं च दशेमे स्वर्गयोनयः ॥

भावार्थ : सच्चाई, खूबसूरती, शास्त्रज्ञान, उत्तम कुल, शील, पराक्रम। धन, शौर्य, विनय और वाक् पटुता -ये दस गुण स्वर्ग पाने के अर्थात समस्त एेश्वर्य पाने के साधन हैं।

(109)

असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वैरकृच्छठः। 
स कृच्छं महदाप्नोति नचिरात् पापमाचरन् ॥

भावार्थ : अच्छाई में बुराई देखनेवाले, उपहास उड़ाने वाला, कड़वा बोलने वाला, अत्याचारी, अन्यायी तथा कुटिल पुरुष पाप कर्मो में लिप्त रहता है और शीघ्र ही मुसीबतों से घिर जाता है।

(110)

अनुसूयुः कृतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। 
नकृच्छं महदाप्नोति सर्वत्र च विरोचते ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति किसी की निंदा नहीं करता, केवल गुणों को देखता है, वह बुद्धिमान सदैव अच्छे कार्य करके पुण्य कमाता है और सब लोग उसका सम्मान करते हैं।

(111)

आक्रु श्मानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः। 
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति॥

भावार्थ : अपनी बुराई सुनकर भी जो स्वयं बुराई न करें, उसे क्षमा कर दें। इस प्रकार उसे उसका पुण्य प्राप्त होता है और बुराई करनेवाला अपने कर्मों से स्वयं ही नष्ट हो जाता है।

(112)

नाक्रोशी स्यात्रावमानी परस्य मित्रद्रोही नोत निचोपसेवी। 
न चाभिमानी न च हीनवृत्तों रुक्षां वाचं रुषतीं वर्जयीत॥
भावार्थ : यादृशैः सत्रिविशते यादृशांश्चोपसेवते। 
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पूरुषः ॥

भावार्थ : व्यक्ति जैसे लोगों के साथ उठता -बैठता है, जैसे लोगों की संगति करता है, उसी के अनुरूप स्वयं को ढाल लेता है।

(113)

मर्माण्यस्थीनि ह्रदयं तथासून् ,रुक्षा वाचो निर्दहन्तीह पुंसाम्।
 तस्माद् वाचुमुषतीमुग्ररुपां धर्मारामो नित्यशो वर्जयीत॥

भावार्थ : कठोर बात सीधी मर्मस्थान, हड्डियों तथा दिल पर जाकर चोट करती है और प्राणों को टीसती रहती है, इसलिए धर्मप्रिय व्यक्ति को ऐसी बातों को हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए।

(114)

यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव। 
वासो यथा रङ्गवशं प्रयाति तथा स तेषां वशमभ्युपैति ॥

भावार्थ : कपड़े को जिस रंग में रँगा जाए, उस पर वैसा ही रंग चढ़ जाता है, इसी प्रकार सज्जन के साथ रहने पर सज्जनता, चोर के साथ रहने पर चोरी तथा तपस्वी के साथ रहने पर तपश्चर्या का रंग चढ़ जाता है।

(115)

अतिवादं न प्रवदेत्र वादयेद् यो नाहतः प्रतिहन्यात्र घातयेत्।
हन्तुं च यो नेच्छति पातकं वै तस्मै देवाः स्पृहयन्त्यागताय ॥

भावार्थ : जो न किसी को बुरा कहता है, न कहलवाता है; चोट खाकर भी न तो चोट करता है, न करवाता है, दोषियों को भी क्षमा कर देता है -देवता भी उसके स्वागत में पलकें बिछाए रहते हैं।

(116)

न जीयते चानुजिगीषतेऽन्यान् न वैरकृच्चाप्रतिघातकश्च।
निन्दाप्रशंसासु तमस्वभावो न शोचते ह्रष्यति नैव चायम् ॥

भावार्थ : जो व्यक्ति न तो किसी को जीतता है ,न कोई उसे जीत पाता है ;न किसी से दुश्मनी करता है, न किसी को चोट पहुँचाता है; बुराई और बड़ाई में जो तटस्थ रहता है; वह सुख़ -दुःख के भाव से परे हो जाता है।

(117)

भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मनः। 
सत्यवादी मृदृर्दान्तो यः स उत्तमपूरुषः ॥

भावार्थ : जो पुरुष सबका भला चाहता है, किसी को कष्ट में नहीं देखना चाहता, जो सदा सच बोलता है, जो मन का कोमल है और जिंतेंद्रिय भी, उसे उत्तम पुरुष कहा जाता है।

(118)

प्राप्नोति वै वित्तमसद्बलेन नित्योत्त्थानात् प्रज्ञया पौरुषेण। 
न त्वेव सम्यग् लभते प्रशंसां न वृत्तमाप्नोति महाकुलानाम् ॥

भावार्थ : बेईमानी से, बराबर कोशिश से, चतुराई से कोई व्यक्ति धन तो प्राप्त कर सकता है, लेकिन सदाचार और उत्तम पुरुष को प्राप्त होने वाले आदर -सम्मान को प्राप्त नहीं कर सकता।

(119)

वृत्ततस्त्वाहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि। 
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद् यशः॥

भावार्थ : जिनके पास चाहे धन की कमी हो, लेकिन सदाचार की कोई कमी न हो, ऐसे कुल भी उत्तम कुलों में गिने जाते हैं तथा ये कुल मान -सम्मान और कृर्ति प्राप्त करते हैं ।

(120)

वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च। 
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥

भावार्थ : चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। धन तो आता-जाता रहता है। धन के नष्ट होने पर भी चरित्र सुरक्षित रहता है, लेकिन चरित्र नष्ट होने पर सबकुछ नष्ट हो जाता है।

(121)

गोभिः पशुभिरश्वैश्च कृष्या च सुसमृद्धया। 
कुलानि न प्ररोहन्ति यानि हिनानि वृत्ततः ॥

भावार्थ : जिस कुल में सदाचार नहीं है, वहाँ गायों, घोड़ों, भेड़, तथा अन्य लाख पशु -धन मौजूद हों, उस कुल की उन्नति नहीं हो सकती।

(122)

अर्चयेदेव मित्राणि सति वाऽसति वा धने। 
नानर्थयन् प्रजानति मित्राणं सारफल्गुताम् ॥

भावार्थ : मित्रों का हर स्थिति में आदर करना चाहिए -चाहे उनके पास धन हो अथवा न हो तथा उससे कोई स्वार्थ न होने पर भी वक़्त -जरूरत उनकी सहायता करनी चाहिए।

(123)

सन्तापाद् भ्रश्यते रुपं सन्तापाद् भ्रश्यते बलम्। 
सन्तापाद् भ्रश्यते ज्ञानं सन्तापाद् व्याधिमृच्छति ॥

भावार्थ : शोक करने से रूप -सौंदर्य नष्ट होता है, शोक करने से पौरुष नष्ट होता है, शोक करने से ज्ञान नष्ट होता है और शोक करने से मनुष्य का शरीर दुःखो का घर हो जाता है। अर्थात शोक त्याज्य है।

(124)

सुखं च दुःखं च भवाभवौ च लाभालाभौ मरणं जीवितं च।
 पर्यायशः सर्वमेते स्पृशन्ति तस्माद् धीरो न हृष्येत्र शोचेत् ॥

भावार्थ : सुख -दुःख, लाभ -हानि, जीवन -मृत्यु, उत्पति -विनाश -ये सब स्वाभविक कर्म समय -समय पर सबको प्राप्त होते रहते हैं। ज्ञानी पुरुष को इनके बारे में सोचकर शोक नहीं करना चाहिए। ये सब शाशवत कर्म हैं।

(125)

बुद्धयो भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत्। 
गुरुशुश्रूषया ज्ञानं शान्तिं योगेन विन्दति ॥

भावार्थ : ज्ञान द्वारा मनुष्य का डर दूर होता है ,तप द्वारा उसे ऊँचा पद मिलता है ,गुरु की सेवा द्वारा विद्या प्राप्त होती है तथा योग द्वारा शांति प्राप्त होती है।

(126)

न वै भित्रा जातु चरन्ति धर्मं न वै सुखं प्राप्नुवन्तीह भित्राः। 
न वै सुखंभित्रा गौरवंप्राप्नुवन्ति न वै भित्राप्रशमंरोचयन्ति ॥

भावार्थ : जिनमें मतभेद होता है ,वे लोग कभी न्याय के मार्ग पर नहीं चलते। सुख उनसे कोसों दूर होता है ,कीर्ति उनकी दुश्मन होती है ,तथा शांति की बात उन्हें चुभती है।

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मै निशांत सिंह राजपूत इस ब्लॉग का लेखक और संस्थापक हूँ, अगर मै अपनी योग्यता की बात करू तो मै MCA का छात्र हूँ.

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