Surdas Poems in Hindi | सूरदास के प्रसिद्ध कविताएँ

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सूरदास के प्रसिद्ध कविताएँ

Surdas Poems in Hindi : यहाँ इस लेख में आपको सूरदास के प्रसिद्ध कविताएँ उपलब्ध कराएँगे सूरदास हिन्दी के भक्तिकाल के महान कवि थे।

सूरदास हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है।

अगर आपका भी नहीं इरादा सूरदास के सभी कविता पढ़ने का इरादा है तो आप सही पोस्ट पर है यहां आपको Surdas Poems All Poems सरल भाषा हिंदी में दर्शाये है।

Table of Contents

आजु हौं एक एक करि टरिहौं – सूरदास (1)

आजु हौं एक-एक करि टरिहौं।
 के तुमहीं के हमहीं, माधौ, अपुन भरोसे लरिहौं।

 हौं तौ पतित सात पीढिन कौ, पतिते ह्वै निस्तरिहौं।
 अब हौं उघरि नच्यो चाहत हौं, तुम्हे बिरद बिन करिहौं।

 कत अपनी परतीति नसावत, मैं पायौ हरि हीरा।
 सूर पतित तबहीं उठिहै, प्रभु, जब हँसि दैहौ बीरा।

बृथा सु जन्म गंवैहैं – सूरदास (2)

बृथा सु जन्म गंवैहैं
 जा दिन मन पंछी उडि़ जैहैं।

 ता दिन तेरे तनु तरवर के सबै पात झरि जैहैं॥
 या देही को गरब न करिये स्यार काग गिध खैहैं।

 तीन नाम तन विष्ठा कृमि ह्वै नातर खाक उड़ैहैं॥
कहं वह नीर कहं वह सोभा कहं रंग रूप दिखैहैं।

 जिन लोगन सों नेह करतु है तेई देखि घिनैहैं॥
 घर के कहत सबारे काढ़ो भूत होय घर खैहैं।

 जिन पुत्रनहिं बहुत प्रीति पारेउ देवी देव मनैहैं॥
 तेइ लै बांस दयौ खोपरी में सीस फाटि बिखरैहैं।

 जहूं मूढ़ करो सतसंगति संतन में कछु पैहैं॥
 नर वपु धारि नाहिं जन हरि को यम की मार सुखैहैं।

 सूरदास भगवंत भजन बिनु, बृथा सु जन्म गंवैहैं॥

मधुकर! स्याम हमारे चोर – सूरदास (3)

मधुकर! स्याम हमारे चोर।
 मन हरि लियो सांवरी सूरत¸ चितै नयन की कोर।।

 पकरयो तेहि हिरदय उर–अंतर प्रेम–प्रीत के जोर।
 गए छुड़ाय छोरि सब बंधन दे गए हंसनि अंकोर।।

 सोबत तें हम उचकी परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर।
 सूर¸ स्याम मुसकाहि मेरो सर्वस सै गए नंद किसोर।।

अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल – सूरदास (4)

अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल।
 काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥

 महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
 भ्रम-भोयौ मन भयौ, पखावज, चलत असंगत चाल॥

 तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना विधि दै ताल।
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥

 कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।
 सूरदास की सबै अबिद्या दूरि करौ नँदलाल॥

दियौ अभय पद ठाऊँ -सूरदास 
दियौ अभय पद ठाऊँ

 तुम तजि और कौन पै जाउँ।
 काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥

 ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ।
 अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं दाउँ॥

 रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।

 कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं, कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥
 भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ।

 कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥

जनम अकारथ खोइसि – सूरदास (5)

जनम अकारथ खोइसि
 रे मन, जनम अकारथ खोइसि।

 हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि॥
 निसि-दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि।

 गोड़ पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कहा होइसि॥
 काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि-देखि मुख रोइसि।

 सूर स्याम बिनु कौन छुड़ाये, चले जाव भई पोइसि॥

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं – सूरदास (6)

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
 तब ये लता लगति अति सीतल¸ अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।

 बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
 पवन¸ पानी¸ धनसार¸ संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं।

 ये ऊधो कहियो माधव सों¸ बिरह करद करि मारत लुंजैं।
 सूरदास प्रभु को मग जोवत¸ अंखियां भई बरन ज्यौं गुजैं।

दृढ इन चरण कैरो भरोसो -सूरदास 
दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो ।

 श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥
 साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥

 सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो ॥

अंखियां हरि–दरसन की प्यासी – सूरदास (7)

अंखियां हरि–दरसन की प्यासी।
 देख्यौ चाहति कमलनैन कौ¸ निसि–दिन रहति उदासी।।

 आए ऊधै फिरि गए आंगन¸ डारि गए गर फांसी।
 केसरि तिलक मोतिन की माला¸ वृन्दावन के बासी।।

 काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगन के मन हांसी।
 सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी।।

राखी बांधत जसोदा मैया – सूरदास (8)

राखी बांधत जसोदा मैया ।
 विविध सिंगार किये पटभूषण, पुनि पुनि लेत बलैया ॥

 हाथन लीये थार मुदित मन, कुमकुम अक्षत मांझ धरैया।
 तिलक करत आरती उतारत अति हरख हरख मन भैया ॥

 बदन चूमि चुचकारत अतिहि भरि भरि धरे पकवान मिठैया ।
 नाना भांत भोग आगे धर, कहत लेहु दोउ मैया॥

 नरनारी सब आय मिली तहां निरखत नंद ललैया ।
 सूरदास गिरिधर चिर जीयो गोकुल बजत बधैया ॥

जागिए ब्रजराज कुंवर – सूरदास (9)

जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले।
 कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥

 तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई।
 रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥

 विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी।
 सूर श्रीगोपाल उठौ परम मंगलकारी॥

आजु मैं गाई चरावन जैहों – सूरदास (10)

आजु मैं गाई चरावन जैहों

 बृंदाबन के भाँति भाँति फल, अपने कर मैं खैहौं।
 ऎसी बात कहौ जनि बारे, देखौ अपनी भांति।

 तनक तनक पग चलिहौ कैसें, आवत ह्वै है राति।
 प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत है साँझ।

 तुम्हारौ कमल बदन कुम्हलैहै, रेंगत घामहिं माँझ।
 तेरी सौं मोहि घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक।

 सूरदास प्रभु कहयौ न मानत, परयौ आपनी टेक॥

आजु मैं गाई चरावन जैहों – सूरदास (11)

आजु मैं गाई चरावन जैहों
 बृंदाबन के भाँति भाँति फल, अपने कर मैं खैहौं।

 ऎसी बात कहौ जनि बारे, देखौ अपनी भांति।
 तनक तनक पग चलिहौ कैसें, आवत ह्वै है राति।

 प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत है साँझ।
 तुम्हारौ कमल बदन कुम्हलैहै, रेंगत घामहिं माँझ।

 तेरी सौं मोहि घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक।
 सूरदास प्रभु कहयौ न मानत, परयौ आपनी टेक॥

अजहूँ चेति अचेत – सूरदास (12)

अजहूँ चेति अचेत सबै दिन गए विषय के हेत।
 तीनौं पन ऐसैं हीं खोए, केश भए सिर सेत॥

 आँखिनि अंध, स्त्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन समेत।
 गंगा-जल तजि पियत कूप-जल, हरि-तजि पूजत प्रेत॥

 मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारि पदारथ देत।
 ऐसौ प्रभु छाँडि़ क्यौं भटकै, अजहूँ चेति अचेत॥

 राम नाम बिनु क्यौं छूटौगे, चंद गहैं ज्यौं केत।
 सूरदास कछु खरच न लागत, राम नाम मुख लेत॥

जसोदा हरि पालनैं झुलावै – सूरदास (13)

जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
 हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै ॥

 मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै ।
 तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै ॥

 कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै ।
 सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै ॥

 इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै ।
 जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै ॥

माधव कत तोर करब बड़ाई – सूरदास (14)

माधव कत तोर करब बड़ाई।
 उपमा करब तोहर ककरा सों कहितहुँ अधिक लजाई॥

 अर्थात् भगवान् की तुलना किसी से संभव नहीं है।
 पायो परम पदु गात

 सबै दिन एक से नहिं जात।
 सुमिरन भजन लेहु करि हरि को जों लगि तन कुसलात॥

 कबहूं कमला चपल पाइ कै टेढ़ेइ टेढ़े जात।
 कबहुंक आइ परत दिन ऐसे भोजन को बिललात॥

 बालापन खेलत ही गंवायो तरुना पे अरसात।
 सूरदास स्वामी के सेवत पायो परम पदु गात॥

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मै निशांत सिंह राजपूत इस ब्लॉग का लेखक और संस्थापक हूँ, अगर मै अपनी योग्यता की बात करू तो मै MCA का छात्र हूँ.

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