Makhanlal Chaturvedi Poems in Hindi : इस लेख में आपको देश के प्रसिद्ध कवियों में से एक माखन लाल चतुर्वेदी के प्रसिद्ध कवितायेँ उपलब्ध कराएँगे। भारत के आत्मा कहे जाने वाले माखन लाल चतुर्वेदी देश के प्रसिद्ध कवि, लेखक और पत्रकार थे जिनकी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे।
अगर आप इस लेख पर माखन लाल चतुर्वेदी के प्रसिद्ध कवितायेँ जानने के लिए आये है तो आप सही जगह पर है यहाँ आपको Makhanlal Chaturvedi Poems in Hindi सरल भाषा हिंदी में दर्शाये है।
पुष्प की अभिलाषा – माखन लाल चतुर्वेदी (1)
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।
आज नयन के बँगले में – माखन लाल चतुर्वेदी (2)
आज नयन के बँगले में,
संकेत पाहुने आये री सखि!
जी से उठे, कसक पर बैठे,
और बेसुधी- के बन घूमें,
युगल-पलक ले चितवन मीठी,
पथ-पद-चिह्न चूम, पथ भूले,
दीठ डोरियों पर माधव को।
बार-बार मनुहार थकी मैं,
पुतली पर बढ़ता-सा यौवन,
ज्वार लुटा न निहार सकी मैं !
दोनों कारागृह पुतली के,
सावन की झर लाये री सखि!
आज नयन के बँगले में,
संकेत पाहुने आये री सखि !
उपालम्भ – माखन लाल चतुर्वेदी (3)
क्यों मुझे तुम खींच लाये?
एक गो-पद था, भला था,
कब किसी के काम का था?
क्षुद्ध तरलाई गरीबिन,
अरे कहाँ उलीच लाये?
एक पौधा था, पहाड़ी
पत्थरों में खेलता था,
जिये कैसे, जब उखाड़ा
गो अमृत से सींच लाये!
एक पत्थर बेगढ़-सा
पड़ा था जग-ओट लेकर,
उसे और नगण्य दिखलाने,
नगर-रव बीच लाये?
एक वन्ध्या गाय थी,
हो मस्त बन में घूमती थी,
उसे प्रिय! किस स्वाद से
सिंगार वध-गृह बीच लाये?
एक बनमानुष, बनों में,
कन्दरों में, जी रहा था;
उसे बलि करने कहाँ तुम,
ऐ उदार दधीच लाये?
जहाँ कोमलतर, मधुरतम,
वस्तुएँ जी से सजायीं,
इस अमर सौन्दर्य में, क्यों
कर उठा यह कीच लाये?
चढ़ चुकी है, दूसरे ही
देवता पर, युगों पहले,
वही बलि निज-देव पर देने
दृगों को मींच लाये?
क्यों मुझे तुम खींच लाये?
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं – माखन लाल चतुर्वेदी (4)
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
आये आवेश फिरे जाते हैं॥
चरण ध्वनि पास – दूर कहीं नहीं,
साधें आराधनीय रही नहीं,
उठने, उठ पड़ने की बात रही,
साँसों से गीत बे-अनुपात रही॥
बागों में पंखनियाँ झूल रहीं,
कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं,
फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे,
किसको अनुहार रही चुप साधे॥
दौड़ के विहार उठो अमित रंग,
तू ही श्रीरंग कि मत कर विलम्ब,
बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं,
कितना रोका कि मौन बोल उठीं,
आहों का रथ माना भारी है,
चाहों में क्षुद्रता कुँआरी है॥
आओ तुम अभिनव उल्लास भरे,
नेह भरे, ज्वार भरे, प्यास भरे,
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं,
आये आवेश फिरे जाते हैं॥
एक तुम हो – माखन लाल चतुर्वेदी (5)
गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा।
कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते।
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ।
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर।
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।
तान की मरोर – माखन लाल चतुर्वेदी (6)
तू न तान की मरोर
देख, एक साथ चल,
तू न ज्ञान-गर्व-मत्त–
शोर, देख साथ चल।
सूझ की हिलोर की
हिलोरबाज़ियाँ न खोज,
तू न ध्येय की धरा–
गुंजा, न तू जगा मनोज।
तू न कर घमंड, अग्नि,
जल, पवन, अनंग संग
भूमि आसमान का चढ़े
न अर्थ-हीन रंग।
बात वह नहीं मनुष्य
देवता बना फिरे,
था कि राग-रंगियों–
घिरा, बना-ठना फिरे।
बात वह नहीं कि–
बात का निचोड़ वेद हो,
बात वह नहीं कि-
बात में हज़ार भेद हो।
स्वर्ग की तलाश में
न भूमि-लोक भूल देख,
खींच रक्त-बिंदुओं–
भरी, हज़ार स्वर्ण-रेख।
बुद्धि यन्त्र है, चला;
न बुद्धि का ग़ुलाम हो।
सूझ अश्व है, चढ़े–
चलो, कभी न शाम हो।
शीश की लहर उठे–
फसल कि, एक शीश दे।
पीढ़ियाँ बरस उठें
हज़ार शीश शीश ले।
भारतीय नीलिमा
जगे कि टूट-टूट बंद
स्वप्न सत्य हों, बहार–
गा उठे अमंद छन्द।
बलि-पन्थी से – माखन लाल चतुर्वेदी (7)
मत व्यर्थ पुकारे शूल-शूल,
कह फूल-फूल, सह फूल-फूल।
हरि को ही-तल में बन्द किये,
केहरि से कह नख हूल-हूल।
कागों का सुन कर्त्तव्य-राग,
कोकिल-काकलि को भूल-भूल।
सुरपुर ठुकरा, आराध्य कहे,
तो चल रौरव के कूल-कूल।
भूखंड बिछा, आकाश ओढ़,
नयनोदक ले, मोदक प्रहार,
ब्रह्यांड हथेली पर उछाल,
अपने जीवन-धन को निहार।
फुंकरण कर, रे समय के साँप – माखन लाल चतुर्वेदी (8)
फुंकरण कर, रे समय के साँप
कुंडली मत मार, अपने-आप।
सूर्य की किरणों झरी सी
यह मेरी सी,
यह सुनहली धूल;
लोग कहते हैं
फुलाती है धरा के फूल!
इस सुनहली दृष्टि से हर बार
कर चुका-मैं झुक सकूँ-इनकार!
मैं करूँ वरदान सा अभिशाप
फुंकरण कर, रे समय के साँप !
क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनन्दा देख
उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख।
डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश
ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
फुंकरण कर रे, समय के साँप।
किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज
नीड़-राजकुमार जग आये, विहंग-किशोर!
इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास
बड़ों को तज, ज़रा छोटों तक उठाओ ज़ोर।
कलियाँ, पत्ते, पहुप, सबका नितान्त अभाव
प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव
चल कि बलि पर हो विजय की माप।
फंकुरण कर, रे समय के साँप।।
कैसी है पहिचान तुम्हारी – माखन लाल चतुर्वेदी (9)
कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो!
पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया,
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया?
धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही,
तुम खिलते हो तो खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो!!
किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से,
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से!
काँच-कलेजे में भी करूणा-
के डोरे ही से खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो॥
प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा,
मनमोहिनी धरा के बल हैं,
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब,
तेरी ही छाया के छल हैं।
प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये,
जो बलि के फूलों खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो।।
बसंत मनमाना – माखन लाल चतुर्वेदी (10)
चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।
धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग़ में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।
छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल
किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।
चलो छिया-छी हो अन्तर में – माखन लाल चतुर्वेदी (11)
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
तुम चन्दा,
मैं रात सुहागन।
चमक-चमक उट्ठें आँगन में,
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
बिखर-बिखर उट्ठो, मेरे धन,
भर काले अन्तस पर कन-कन,
श्याम-गौर का अर्थ समझ लें!
जगत पुतलियाँ शून्य प्रहर में,
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
किरनों के भुज, ओ अनगिन कर
मेलो, मेरे काले जी पर
उमग-उमग उट्ठे रहस्य,
गोरी बाँहों का श्याम सुन्दर में,
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
मत देखो, चमकीली किरनों
जग को, ओ चाँदी के साजन!
कहीं चाँदनी मत मिल जावे!
जग-यौवन की लहर-लहर में,
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
चाहों-सी, आहों-सी, मनु-
हारों-सी, मैं हूँ श्यामल-श्यामल
बिना हाथ आये छुप जाते
हो, क्यों! प्रिय किसके मंदिर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
कोटि कोटि दृग! मैं जगमग जो-
हूँ काले स्वर, काले क्षण गिन,
ओ उज्ज्वल श्रम कुछ छू दो,
पटरानी को तुम अमर उभर में,
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
चमकीले किरनीले शस्त्रों,
काट रहे तम श्यामल तिल-तिल,
ऊषा का मरघट साजोगे?
यही लिख सके चार पहर में?
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
ये अंगारे, कहते आये
ये जी के टुकडे, ये तारे
आज मिलोगे’, आज मिलोगे ,
पर हम मिलें न दुनिया-भर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
बदरिया थम-थमकर झर री ! – माखन लाल चतुर्वेदी (12)
बदरिया थम-थनकर झर री !
सागर पर मत भरे अभागन
गागर को भर री !
बदरिया थम-थमकर झर री !
एक-एक, दो-दो बूँदों में
बंधा सिन्धु का मेला,
सहस-सहस बन विहंस उठा है
यह बूँदों का रेला।
तू खोने से नहीं बावरी,
पाने से डर री !
बदरिया थम-थमकर झर री!
जग आये घनश्याम देख तो,
देख गगन पर आगी,
तूने बूंद, नींद खितिहर ने
साथ-साथ ही त्यागी।
रही कजलियों की कोमलता
झंझा को बर री !
बदरिया थम-थमकर झर री !
कुंज कुटीरे यमुना तीरे – माखन लाल चतुर्वेदी (13)
पगली तेरा ठाट!
किया है रतनाम्बर परिधान,
अपने काबू नहीं,
और यह सत्याचरण विधान!
उन्मादक मीठे सपने ये,
ये न अधिक अब ठहरें,
साक्षी न हों, न्याय-मन्दिर में,
कालिन्दी की लहरें।
डोर खींच मत शोर मचा,
मत बहक, लगा मत जोर,
माँझी, थाह देखकर आ,
तू मानस तट की ओर।
कौन गा उठा? अरे!
करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर?
इसी कैद के बन्दी हैं,
वे श्यामल-गौर-शरीर।
पलकों की चिक पर,
हृत्तल के छूट रहे फव्वारे,
नि:श्वासें पंखे झलती हैं,
उनसे मत गुंजारे;
यही व्याधि मेरी समाधि है,
यही राग है त्याग;
क्रूर तान के तीखे शर,
मत छेदे मेरे भाग।
काले अंतस्थल से छूटी,
कालिन्दी की धार,
पुतली की नौका पर,
लायी मैं दिलदार उतार,
बादबान तानी पलकों ने,
हा! यह क्या व्यापार!
कैसे ढूँढ़ू हृदय-सिन्धु में,
छूट पड़ी पतवार !
भूली जाती हूँ अपने को,
प्यारे, मत कर शोर,
भाग नहीं, गह लेने दे,
अपने अम्बर का छोर।
अरे बिकी बेदाम कहाँ मैं,
हुई बड़ी तकसीर,
धोती हूँ; जो बना चुकी
हूँ पुतली में तसवीर;
डरती हूँ दिखलायी पड़ती,
तेरी उसमें बंसी
कुंज कुटीरे, यमुना तीरे
तू दिखता जदुबंसी।
अपराधी हूँ, मंजुल मूरत
ताकी, हा! क्यों ताकी?
बनमाली हमसे न धुलेगी
ऐसी बाँकी झाँकी।
अरी खोद कर मत देखे,
वे अभी पनप पाये हैं,
बड़े दिनों में खारे जल से,
कुछ अंकुर आये हैं,
पत्ती को मस्ती लाने दे,
कलिका कढ़ जाने दे,
अन्तर तर को, अन्त चीर कर,
अपनी पर आने दे,
ही-तल बेध, समस्त खेद तज,
मैं दौड़ी आऊँगी,
नील सिंधु-जल-धौत चरण
पर चढ़कर खो जाऊँगी।
प्यारे भारत देश – माखन लाल चतुर्वेदी (14)
प्यारे भारत देश
गगन-गगन तेरा यश फहरा
पवन-पवन तेरा बल गहरा
क्षिति-जल-नभ पर डाल हिंडोले
चरण-चरण संचरण सुनहरा
ओ ऋषियों के त्वेष
प्यारे भारत देश।।
वेदों से बलिदानों तक जो होड़ लगी
प्रथम प्रभात किरण से हिम में जोत जागी
उतर पड़ी गंगा खेतों खलिहानों तक
मानो आँसू आये बलि-महमानों तक
सुख कर जग के क्लेश
प्यारे भारत देश।।
तेरे पर्वत शिखर कि नभ को भू के मौन इशारे
तेरे वन जग उठे पवन से हरित इरादे प्यारे!
राम-कृष्ण के लीलालय में उठे बुद्ध की वाणी
काबा से कैलाश तलक उमड़ी कविता कल्याणी
बातें करे दिनेश
प्यारे भारत देश।।
जपी-तपी, संन्यासी, कर्षक कृष्ण रंग में डूबे
हम सब एक, अनेक रूप में, क्या उभरे क्या ऊबे
सजग एशिया की सीमा में रहता केद नहीं
काले गोरे रंग-बिरंगे हममें भेद नहीं
श्रम के भाग्य निवेश
प्यारे भारत देश।।
वह बज उठी बासुँरी यमुना तट से धीरे-धीरे
उठ आई यह भरत-मेदिनी, शीतल मन्द समीरे
बोल रहा इतिहास, देश सोये रहस्य है खोल रहा
जय प्रयत्न, जिन पर आन्दोलित-जग हँस-हँस जय बोल रहा,
जय-जय अमित अशेष
प्यारे भारत देश।।
झूला झूलै री – माखन लाल चतुर्वेदी (15)
संपूरन कै संग अपूरन झूला झूलै री,
दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री।
गड़े हिंडोले, वे अनबोले मन में वृन्दावन में,
निकल पड़ेंगे डोले सखि अब भू में और गगन में,
ऋतु में और ऋचा में कसके रिमझिम-रिमझिम बरसन,
झांकी ऐसी सजी झूलना भी जी भूलै री,
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।
रूठन में पुतली पर जी की जूठन डोलै री,
अनमोली साधों में मुरली मोहन बोलै री,
करतालन में बँध्यो न रसिया, वह तालन में दीख्यो,
भागूँ कहाँ कलेजौ कालिंदी मैं हूलै री।
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।
नभ के नखत उतर बूँदों में बागों फूल उठे री,
हरी-हरी डालन राधा माधव से झूल उठे री,
आज प्रणव ने प्रणय भीख से कहा कि नैन उठा तो,
साजन दीख न जाय संभालो जरा दुकूलै री,
दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री,
संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।
भाई, छेड़ो नही, मुझे – माखन लाल चतुर्वेदी (16)
भाई, छेड़ो नहीं, मुझे
खुलकर रोने दो
यह पत्थर का हृदय
आँसुओं से धोने दो,
रहो प्रेम से तुम्हीं
मौज से मंजु महल में,
मुझे दुखों की इसी
झोपड़ी में सोने दो।
कुछ भी मेरा हृदय
न तुमसे कह पायेगा,
किन्तु फटेगा; फटे-
बिना क्यों रह पायेगा;
सिसक-सिसक सानंद
आज होगी श्री-पूजा,
बहे कुटिल यह सुख
दु:ख क्यों बह पायेगा।
वारूँ सौ-सौ श्वास
एक प्यारी उसाँस पर,
हारूँ, अपने प्राण, दैव
तेरे विलास पर,
चलो, सखे तुम चलो
तुम्हारा कार्य चलाओ
लगे दुखों की झड़ी
आज अपने निराश पर!
हरि खोया है? नहीं,
हृदय का धन खोया है,
और, न जाने वहीं
दुरात्मा मन खोया है
किन्तु आज तक नहीं
हाय इस तन को खोया,
अरे बचा क्या शेष,
पूर्ण जीवन खोया है।
पूजा के ये पुष्प-
गिरे जाते हैं नीचें,
यह आँसू का स्रोत
आज किसके पद सींचे,
दिखलाती, क्षण मात्र
न आती, प्यारी प्रतिमा
यह दुखिया किस भाँति
उसे भूतल पर खींचे!
इस तरह ढक्कन लगाया रात ने – माखन लाल चतुर्वेदी (17)
इस तरह ढक्कन लगाया रात ने,
इस तरफ़ या उस तरफ़ कोई न झाँके।
बुझ गया सूर्य,
बुझ गया चाँद, त्रस्त ओट लिये
गगन भागता है तारों की मोट लिये!
आगे-पीछे, ऊपर-नीचे,
अग-जग में तुम हुए अकेले,
छोड़ चली पहचान, पुष्पझर
रहे गंधवाही अलबेले।
ये प्रकाश के मरण-चिह्न तारे
इनमें कितना यौवन है?
गिरि-कंदर पर, उजड़े घर पर,
घूम रहे नि:शंक मगन हैं।
घूम रही एकाकिनि वसुधा,
जग पर एकाकी तम छाया,
कलियाँ किन्तु निहाल हो उठीं,
तू उनमें चुप-चुप भर आया।
मुँह धो-धोकर दूब बुलाती,
चरणों में छूना उकसाती,
साँस मनोहर आती-जाती,
मधु-संदेशे भर-भर लाती।
मधुर! बादल, और बादल, और बादल – माखन लाल चतुर्वेदी (18)
मधुर ! बादल, और बादल, और बादल आ रहे हैं
और संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।
गरज में पुस्र्षार्थ उठता, बरस में कस्र्णा उतरती
उग उठी हरीतिमा क्षण-क्षण नया श्रृङ्गर करती
बूँद-बूँद मचल उठी हैं, कृषक-बाल लुभा रहे हैं।।
नेह! संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।
तड़ित की तह में समायी मूर्ति दृग झपका उठी है
तार-तार कि धार तेरी, बोल जी के गा उठी हैं
पंथियों से, पंछियों से नीड़ के स्र्ख जा रहे हैं
मधुर! बादल, और बादल, और बादल आ रहे हैं।।
झाड़ियों का झूमना, तस्र्-वल्लरी का लहलहाना
द्रवित मिलने के इशारे, सजल छुपने का बहाना।
तुम नहीं आये, न आवो, छवि तुम्हारी ला रहे हैं।।
मधुर! बादल, और बादल, और बादल छा रहे हैं,
और संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।
दूबों के दरबार में – माखन लाल चतुर्वेदी (19)
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में?
नीली भूमि हरी हो आई
इस किरणों के ज्वार में !
क्या देखें तरुओं को उनके
फूल लाल अंगारे हैं;
बन के विजन भिखारी ने
वसुधा में हाथ पसारे हैं।
नक्शा उतर गया है, बेलों
की अलमस्त जवानी का
युद्ध ठना, मोती की लड़ियों से
दूबों के पानी का!
तुम न नृत्य कर उठो मयूरी,
दूबों की हरियाली पर;
हंस तरस खाएँ उस मुक्ता
बोने वाले माली पर!
ऊँचाई यों फिसल पड़ी है
नीचाई के प्यार में!
क्या आकाश उतर आया है
दूबों के दरबार में?
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी – माखन लाल चतुर्वेदी (20)
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
उस सीमा-रेखा पर
जिसके ओर न छोर निशानी;
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
घास-पात से बनी वहीं
मेरी कुटिया मस्तानी,
कुटिया का राजा ही बन
रहता कुटिया की रानी !
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
राज-मार्ग से परे, दूर, पर
पगडंडी को छू कर
अश्रु-देश के भूपति की है
बनी जहाँ रजधानी ।
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
आँखों में दिलवर आता है,
सैन-नसैनी चढ़कर,
पलक बाँध पुतली में
झूले देती कस्र्ण कहानी।
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
प्रीति-पिछौरी भीगा करती
पथ जोहा करती हूँ,
जहाँ गवन की सजनि
रमन के हाथों खड़ी बिकानी।
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
दो प्राणों में मचे न माधव
बलि की आँख मिचौनी,
जहाँ काल से कभी चुराई
जाती नहीं जवानी।
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
भोजन है उल्लास, जहाँ
आँखों का पानी, पानी!
पुतली परम बिछौना है
ओढ़नी पिया की बानी।
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
प्रान-दाँव की कुंज-गली
है, गो-गन बीचों बैठी,
एक अभागिन बनी श्याम धन
बनकर राधारानी।
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
सोते हैं सपने, ओ पंथी !
मत चल, मत चल, मत चल,
नजर लगे मत, मिट मत जाये
साँसों की नादानी।
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी !
क्या आकाश उतर आया है – माखन लाल चतुर्वेदी (21)
क्या आकाश उतर आया है,
दूबों के दरबार में,
नीली भूमि हरि हो आई,
इस किरणों के ज्वार में।
क्या देखें तरुओं को, उनके
फूल लाल अंगारे हैं,
वन के विजन भिखारी ने,
वसुधा में हाथ पसारे हैं।
नक्शा उतर गया है, बेलों
की अलमस्त जवानी का
युद्ध ठना, मोती की लड़ियों
से दूबों के पानी का।
तुम न नृत्य कर उठो मयूरी,
दूबों की हरियाली पर,
हंस तरस खायें, उस –
मुक्ता बोने वाले माली पर।
ऊँचाई यों फिसल पड़ी है,
नीचाई के प्यार में,
क्या आकाश उतर आया है,
दूबों के दरबार में?
जागना अपराध – माखन लाल चतुर्वेदी (22)
जागना अपराध!
इस विजन – वन गोद में सखि,
मुक्ति – बन्धन – मोद में सखि,
विष – प्रहार – प्रमोद में सखि,
मृदुल भावों
स्नेह दावों
अश्रु के अगणित अभावों का शिकारी-
आ गया विध व्याध;
जागना अपराध!
बंक वाली, भौंह काली,
मौत, यह अमरत्व ढाली,
कस्र्ण धन – सी,
तरल घन – सी
सिसकियों के सघन वन-सी,
श्याम – सी,
ताजे, कटे – से,
खेत – सी असहाय,
कौन पूछे?
पुस्र्ष या पशु
आय चाहे जाय,
खोलती सी शाप,
कसकर बाँधती वरदान-
पाप में-
कुछ आप खोती
आप में-
कुछ मान।
ध्यान में, घुन में,
हिये में, घाव में,
शर में,
आँख मूँदें,
ले रही विष को-
अमृत के भाव!
अचल पलक,
अचंचला पुतली
युगों के बीच,
दबी – सी,
उन तरल बूँदों से
कलेजा सींच,
खूब अपने से
लपेट – लपेट
परम अभाव,
चाव से बोली,
प्रलय की साध-
जागना अपराध!
मैं अपने से डरती हूँ सखि – माखन लाल चतुर्वेदी (23)
मैं अपने से डरती हूँ सखि !
पल पर पल चढ़ते जाते हैं,
पद-आहट बिन, रो! चुपचाप
बिना बुलाये आते हैं दिन,
मास, वरस ये अपने-आप;
लोग कहें चढ़ चली उमर में
पर मैं नित्य उतरती हूँ सखि !
मैं अपने से डरती हूँ सखि !
मैं बढ़ती हूँ? हाँ; हरि जानें
यह मेरा अपराध नहीं है,
उतर पड़ूँ यौवन के रथ से
ऐसी मेरी साध नहीं है;
लोग कहें आँखें भर आईं,
मैं नयनों से झरती हूँ सखि !
मैं अपने से डरती हूँ सखि !
किसके पंखों पर, भागी
जाती हैं मेरी नन्हीं साँसें ?
कौन छिपा जाता है मेरी
साँसों में अनगिनी उसाँसें ?
लोग कहें उन पर मरती है
मैं लख उन्हें उभरती हूँ सखि !
मैं अपने से डरती हूँ सखि !
सूरज से बेदाग, चाँद से
रहे अछूती, मंगल-वेला,
खेला करे वही प्राणों में,
जो उस दिन प्राणों पर खेला,
लोग कहें उन आँखों डूबी,
मैं उन आँखों तरती हूँ सखि !
मैं अपने से डरती हूँ सखि !
जब से बने प्राण के बन्धन,
छूट गए गठ-बन्धन रानी,
लिखने के पहले बन बैठी,
मैं ही उनकी प्रथम कहानी,
लोग कहें आँखें बहती हैं;
उनके चरण भिगोने आयें,
जिस दिन शैल-शिखिरियाँ उनको
रजत मुकुट पहनाने आयें,
लोग कहें, मैं चढ़ न सकूँगी-
बोझीली; प्रण करती हूँ सखि !
मैं नर्मदा बनी उनके,
प्राणों पर नित्य लहरती हूँ सखि !
मैं अपने से डरती हूँ सखि !
उस प्रभात, तू बात न माने – माखन लाल चतुर्वेदी (24)
उस प्रभात, तू बात न माने,
तोड़ कुन्द कलियाँ ले आई,
फिर उनकी पंखड़ियाँ तोड़ीं
पर न वहाँ तेरी छवि पाई,
कलियों का यम मुझ में धाया
तब साजन क्यों दौड़ न आया?
फिर पंखड़ियाँ ऊग उठीं
वे फूल उठी, मेरे वनमाली!
कैसे, कितने हार बनाती
फूल उठी जब डाली-डाली!
सूत्र, सहारा, ढूँढं न पाया
तू, साजन, क्यों दौड़ न आया?
दो-दो हाथ तुम्हारे मेरे
प्रथम हार के हार बनाकर,
मेरी हारों की वन माला
फूल उठी तुझको पहिनाकर,
पर तू था सपनों पर छाया
तू साजन, क्यों दौड़ न आया?
दौड़ी मैं, तू भाग न जाये,
डालूँ गलबहियों की माला
फूल उठी साँसों की धुन पर
मेरी हार , कि तेरी माला !
तू छुप गया, किसी ने गाया-
रे साजन, क्यों दौड़ न आया!
जी की माल, सुगंध नेह की
सूख गई, उड़ गई, कि तब तू
दूलह बना; दौड़कर बोला
पहिना दो सूखी वनमाला।
मैं तो होश समेट न पाई
तेरी स्मृति में प्राण छुपाया,
युग बोला, तू अमर तस्र्ण है
मति ने स्मृति आँचल सरकाया,
जी में खोजा, तुझे न पाया
तू साजन, क्यों दौड़ न आया?
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक – माखन लाल चतुर्वेदी (25)
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
प्रलय-प्रणय की मधु-सीमा में
जी का विश्व बसा दो मालिक!
रागें हैं लाचारी मेरी,
तानें बान तुम्हारी मेरी,
इन रंगीन मृतक खंडों पर,
अमृत-रस ढुलका दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
जब मेरा अलगोजा बोले,
बल का मणिधर, स्र्ख रख डोले,
खोले श्याम-कुण्डली विष को
पथ-भूलना सिखा दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
कठिन पराजय है यह मेरी
छवि न उतर पाई प्रिय तेरी
मेरी तूली को रस में भर,
तुम भूलना सिखा दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
प्रहर-प्रहर की लहर-लहर पर
तुम लालिमा जगा दो मालिक!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक!
घर मेरा है? – माखन लाल चतुर्वेदी (26)
क्या कहा कि यह घर मेरा है?
जिसके रवि उगें जेलों में,
संध्या होवे वीरानों मे,
उसके कानों में क्यों कहने
आते हो? यह घर मेरा है?
है नील चंदोवा तना कि झूमर
झालर उसमें चमक रहे,
क्यों घर की याद दिलाते हो,
तब सारा रैन-बसेरा है?
जब चाँद मुझे नहलाता है,
सूरज रोशनी पिन्हाता है,
क्यों दीपक लेकर कहते हो,
यह तेरा दीपक लेकर कहते हो,
यह तेरा है, यह मेरा है?
ये आए बादल घूम उठे,
ये हवा के झोंके झूम उठे,
बिजली की चमचम पर चढ़कर,
गीले मोती भू चूम उठे;
फिर सनसनाहट का ठाठ बना,
आ गई हवा, कजली गाने,
आ गई रात, सौगात लिए,
ये गुलसबो मासूम उठे।
इतने में कोयल बोल उठी,
अपनी तो दुनिया डोल उठी,
यह अंधकार का तरल प्यार
सिसकें बन आयीं जब मलार;
मत घर की याद दिलाओ तुम
अपना तो काला डेरा है।
कलरव, बरसात, हवा ठंडी,
मीठे दाने, खारे मोती,
सब कुछ ले, लौटाया न कभी,
घरवाला महज़ लुटेरा है।
हो मुकुट हिमालय पहनाता,
सागर जिसके पद धुलवाता,
यह बंधा बेड़ियों में मंदिर,
मस्जिद, गुस्र्द्वारा मेरा है।
क्या कहा कि यह घर मेरा है?
नयी-नयी कोपलें – माखन लाल चतुर्वेदी (27)
नयी-नयी कोपलें, नयी कलियों से करती जोरा-जोरी
चुप बोलना, खोलना पंखुड़ि, गंध बह उठा चोरी-चोरी।
उस सुदूर झरने पर जाकर हरने के दल पानी पीते
निशि की प्रेम-कहानी पीते, शशि की नव-अगवानी पीते।
उस अलमस्त पवन के झोंके ठहर-ठहर कैसे लहाराते
मानो अपने पर लिख-लिखकर स्मृति की याद-दिहानी लाते।
बेलों से बेलें हिलमिलकर, झरना लिये बेखर उठी हैं
पंथी पंछी दल की टोली, विवश किसी को टेर उठी है।
किरन-किरन सोना बरसाकर किसको भानु बुलाने आया
अंधकार पर छाने आया, या प्रकाश पहुँचाने आया।
मेरी उनकी प्रीत पुरानी, पत्र-पत्र पर डोल उठी है
ओस बिन्दुओं घोल उठी है, कल-कल स्वर में बोल उठी है
वर्षा ने आज विदाई ली – माखन लाल चतुर्वेदी (28)
वर्षा ने आज विदाई ली जाड़े ने कुछ अंगड़ाई ली
प्रकृति ने पावस बूँदो से रक्षण की नव भरपाई ली।
सूरज की किरणों के पथ से काले काले आवरण हटे
डूबे टीले महकन उठ्ठी दिन की रातों के चरण हटे।
पहले उदार थी गगन वृष्टि अब तो उदार हो उठे खेत
यह ऊग ऊग आई बहार वह लहराने लग गई रेत।
ऊपर से नीचे गिरने के दिन रात गए छवियाँ छायीं
नीचे से ऊपर उठने की हरियाली पुन: लौट आई।
अब पुन: बाँसुरी बजा उठे ब्रज के यमुना वाले कछार
धुल गए किनारे नदियों के धुल गए गगन में घन अपार।
अब सहज हो गए गति के वृत जाना नदियों के आर पार
अब खेतों के घर अन्नों की बंदनवारें हैं द्वार द्वार।
नालों नदियों सागरो सरों ने नभ से नीलांबर पाए
खेतों की मिटी कालिमा उठ वे हरे हरे सब हो आए।
मलयानिल खेल रही छवि से पंखिनियों ने कल गान किए
कलियाँ उठ आईं वृन्तों पर फूलों को नव मेहमान किए।
घिरने गिरने के तरल रहस्यों का सहसा अवसान हुआ
दाएँ बाएँ से उठी पवन उठते पौधों का मान हुआ।
आने लग गई धरा पर भी मौसमी हवा छवि प्यारी की
यादों में लौट रही निधियाँ मनमोहन कुंज विहारी की।
गाली में गरिमा घोल-घोल – माखन लाल चतुर्वेदी (29)
गाली में गरिमा घोल-घोल,
क्यों बढ़ा लिया यह नेह-तोल।
कितने मीठे, कितने प्यारे,
अर्पण के अनजाने विरोध,
कैसे नारद के भक्ति-सूत्र,
आ गये कुंज-वन शोध-शोध!
हिल उठे झूलने भरे झोल,
गाली में गरिमा घोल-घोल।
जब बेढंगे हो उठे द्वार,
जब बेकाबू हो उठा ज्वार,
इसने जिस दिन घनश्याम कहा,
वह बोल उठा परवर-दिगार।
मणियों का भी क्या बने मोल।
गाली में गरिमा घोल-घोल।
ये बोले इनका मृदुल हास्य,
वे कहें कि उनके मृदुल बोल,
भूगोल चुटकियाँ देता है,
वह नाच-नाच उट्टा खगोल।
कुछ तो अपने फरफन्द खोल,
गाली में गरिमा घोल-घोल॥
गंगा की विदाई – माखन लाल चतुर्वेदी (30)
शिखर शिखारियों में मत रोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
लौटे? यह न सधेगा रुकना
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।
तुम ऊंचे उठते हो रह रह,
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते, यह
भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,
तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।
डेढ सहस मील में इसने,प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
तरल तारिणी तरला ने,
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
साहस पे न्यौछावर होती,
धारा धन्य की ललच उठी है,
मैं पंथिनी अपने घर होती,
हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।
यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित भू
ओढ़े नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,
इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।
शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
लिए हुए छविमान हिमालय,
मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो,
भारत को वरदान हिमालय,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
कर दो कन्यादान हिमालय।
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।
सिपाही – माखन लाल चतुर्वेदी (31)
गिनो न मेरी श्वास,
छुए क्यों मुझे विपुल सम्मान?
भूलो ऐ इतिहास,
ख़रीदे हुए विश्व-ईमान !!
अरि-मुड़ों का दान,
रक्त-तर्पण भर का अभिमान,
लड़ने तक महमान,
एक पँजी है तीर-कमान!
मुझे भूलने में सुख पाती,
जग की काली स्याही,
दासो दूर, कठिन सौदा है
मैं हूँ एक सिपाही !
क्या वीणा की स्वर-लहरी का
सुनूँ मधुरतर नाद?
छि:! मेरी प्रत्यंचा भूले
अपना यह उन्माद!
झंकारों का कभी सुना है
भीषण वाद विवाद?
क्या तुमको है कुस्र्-क्षेत्र
हलदी-घाटी की याद!
सिर पर प्रलय, नेत्र में मस्ती,
मुट्ठी में मन-चाही,
लक्ष्य मात्र मेरा प्रियतम है,
मैं हूँ एक सिपाही !
खीचों राम-राज्य लाने को,
भू-मंडल पर त्रेता !
बनने दो आकाश छेदकर
उसको राष्ट्र-विजेता
जाने दो, मेरी किस
बूते कठिन परीक्षा लेता,
कोटि-कोटि कंठों जय-जय है
आप कौन हैं, नेता?
सेना छिन्न, प्रयत्न खिन्न कर,
लाये न्योत तबाही,
कैसे पूजूँ गुमराही को
मैं हूँ एक सिपाही?
बोल अरे सेनापति मेरे!
मन की घुंडी खोल,
जल, थल, नभ, हिल-डुल जाने दे,
तू किंचित् मत डोल !
दे हथियार या कि मत दे तू
पर तू कर हुंकार,
ज्ञातों को मत, अज्ञातों को,
तू इस बार पुकार!
धीरज रोग, प्रतीक्षा चिन्ता,
सपने बनें तबाही,
कह तैयार ! द्वार खुलने दे,
मैं हूँ एक सिपाही !
बदलें रोज बदलियाँ, मत कर
चिन्ता इसकी लेश,
गर्जन-तर्जन रहे, देख
अपना हरियाला देश!
खिलने से पहले टूटेंगी,
तोड़, बता मत भेद,
वनमाली, अनुशासन की
सूजी से अन्तर छेद!
श्रम-सीकर प्रहार पर जीकर,
बना लक्ष्य आराध्य
मैं हूँ एक सिपाही, बलि है
मेरा अन्तिम साध्य !
कोई नभ से आग उगलकर
किये शान्ति का दान,
कोई माँज रहा हथकड़ियाँ
छेड़ क्रांन्ति की तान!
कोई अधिकारों के चरणों चढ़ा रहा ईमान,
हरी घास शूली के पहले
की -तेरा गुण गान!
आशा मिटी, कामना टूटी,
बिगुल बज पड़ी यार!
मैं हूँ एक सिपाही ! पथ दे,
खुला देख वह द्वार !!
ये वृक्षों में उगे परिन्दे – माखन लाल चतुर्वेदी (32)
ये वृक्षों में उगे परिन्दे
पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिये
अग जग में अपनी सुगन्धित का
दूर-पास विस्तार किये।
झाँक रहे हैं नभ में किसक
फिर अनगिनती पाँखों से
जो न झाँक पाया संसृति-पथ
कोटि-कोटि निज आँखों से।
श्याम धरा, हरि पीली डाली
हरी मूठ कस डाली
कली-कली बेचैन हो गई
झाँक उठी क्या लाली!
आकर्षण को छोड़ उठे ये
नभ के हरे प्रवासी
सूर्य-किरण सहलाने दौड़ी
हवा हो गई दासी।
बाँध दिये ये मुकुट कली मिस
कहा-धन्य हो यात्री!
धन्य डाल नत गात्री।
पर होनी सुनती थी चुप-चुप
विधि -विधान का लेखा!
उसका ही था फूल
हरी थी, उसी भूमि की रेखा।
धूल-धूल हो गया फूल
गिर गये इरादे भू पर
युद्ध समाप्त, प्रकृति के ये
गिर आये प्यादे भू पर।
हो कल्याण गगन पर-
मन पर हो, मधुवाही गन्ध
हरी-हरी ऊँचे उठने की
बढ़ती रहे सुगन्ध!
पर ज़मीन पर पैर रहेंगे
प्राप्ति रहेगी भू पर
ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि
मूर्त्ति रहेगी भू पर।।
ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा – माखन लाल चतुर्वेदी (33)
ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा
मेरी सुरत बावली बोली-
उतर न सके प्राण सपनों से,
मुझे एक सपने में ले ले।
मेरा कौन कसाला झेले?
तेर एक-एक सपने पर
सौ-सौ जग न्यौछावर राजा।
छोड़ा तेरा जगत-बखेड़ा
चल उठ, अब सपनों में खेलें?
मेरा कौन कसाला झेले?
देख, देख, उस ओर मित्र की
इस बाजू पंकज की दूरी,
और देख उसकी किरनों में
यह हँस-हँस जय माला मेले।
मेरा कौन कसाला झेले?
पंकज का हँसना,
मेरा रो देना,
क्या अपराध हुआ यह?
कि मैं जन्म तुझमें ले आया
उपजा नहीं कीच के ढेले।
मेरा कौन कसाला झेले?
तो भी मैं ऊषा के स्वर में
फूल-फूल मुख-पंकज धोकर
जी, हँस उठी आँसुओं में से
छुपी वेदना में रस घोले।
मेरा कौन कसाला झेले?
कितनी दूर?
कि इतनी दूरी!
ऊगे भले प्रभाकर मेरे,
क्यों ऊगे? जी पहुँच न पाता
यह अभाग अब किससे खेले?
मेरा कौन कसाला झेले?
प्रात: आँसू ढुलकाकर भी
खिली पखुड़ियाँ, पंकज किलके,
मैं भाँवरिया खेल न जानी
अपने साजन से हिल-मिल के।
मेरा कौन कसाला झेले?
दर्पण देखा, यह क्या दीखा?
मेरा चित्र, कि तेरी छाया?
मुसकाहट पर चढ़कर बैरी
रहा बिखेरे चमक के ढेले,
मेरा कौन कसाला झेले?
यह प्रहार? चोखा गठ-बंधन!
चुंबन में यह मीठा दंशन।
पिये इरादे, खाये संकट
इतना क्या कम है अपनापन?
बहुत हुआ, ये चिड़ियाँ चहकीं,
ले सपने फूलों में ले ले।
मेरा कौन कसाला झेले?
अमर राष्ट्र – माखन लाल चतुर्वेदी (34)
छोड़ चले, ले तेरी कुटिया,
यह लुटिया-डोरी ले अपनी,
फिर वह पापड़ नहीं बेलने,
फिर वह माल पडे न जपनी।
यह जागृति तेरी तू ले-ले,
मुझको मेरा दे-दे सपना,
तेरे शीतल सिंहासन से,
सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।
सूली का पथ ही सीखा हूँ,
सुविधा सदा बचाता आया,
मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ,
जीवन-ज्वाल जलाता आया।
एक फूँक, मेरा अभिमत है,
फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल,
मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी,
फेंक चुका कब का गंगाजल।
इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे,
इस उतार से जा न सकोगे,
तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो,
जीवन-पथ अपना न सकोगे।
श्वेत केश? भाई होने को,
हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी,
आया था इस घर एकाकी,
जाने दो मुझको एकाकी।
अपना कृपा-दान एकत्रित,
कर लो, उससे जी बहला लें,
युग की होली माँग रही है,
लाओ उसमें आग लगा दें।
मत बोलो वे रस की बातें,
रस उसका जिसकी तस्र्णाई,
रस उसका जिसने सिर सौंपा,
आगी लगा भभूत रमायी।
जिस रस में कीड़े पड़ते हों,
उस रस पर विष हँस-हँस डालो,
आओ गले लगो, ऐ साजन!
रेतो तीर, कमान सँभालो।
हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर,
तुमने पत्थर का प्रभु खोजा!
लगे माँगने जाकर रक्षा,
और स्वर्ण-रूपे का बोझा?
मैं यह चला पत्थरों पर चढ़,
मेरा दिलबर वहीं मिलेगा,
फूँक जला दें सोना-चाँदी,
तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा।
चट्टानें चिंघाड़ें हँस-हँस,
सागर गरजे मस्ताना-सा,
प्रलय राग अपना भी उसमें,
गूँथ चलें ताना-बाना-सा।
बहुत हुई यह आँख-मिचौनी,
तुम्हें मुबारक यह वैतरनी,
मैं साँसों के डाँड उठाकर,
पार चला, लेकर युग-तरनी।
मेरी आँखे, मातृ-भूमि से,
नक्षत्रों तक, खीचें रेखा,
मेरी पलक-पलक पर गिरता,
जग के उथल-पुथल का लेखा!
मैं पहला पत्थर मन्दिर का,
अनजाना पथ जान रहा हूँ,
गूड़ँ नींव में, अपने कन्धों पर,
मन्दिर अनुमान रहा हूँ।
मरण और सपनों में,
होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी,
किसकी यह मरजी-नामरजी,
किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी?
अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र !
यह मेरी बोली,
यह सुधार समझौतों वाली,
मुझको भाती नहीं ठठोली।
मैं न सहूँगा-मुकुट और
सिंहासन ने वह मूछ मरोरी,
जाने दे, सिर, लेकर मुझको
ले सँभाल यह लोटा-डोरी !
वेणु लो, गूँजे धरा – माखन लाल चतुर्वेदी (35)
वेणु लो, गूँजे धरा मेरे सलोने श्याम
एशिया की गोपियों ने वेणि बाँधी है
गूँजते हों गान,गिरते हों अमित अभिमान
तारकों-सी नृत्य ने बारात साधी है।
युग-धरा से दृग-धरा तक खींच मधुर लकीर
उठ पड़े हैं चरण कितने लाड़ले छुम से
आज अणु ने प्रलय की टीका
विश्व-शिशु करता रहा प्रण-वाद जब तुमसे।
शील से लग पंचशील बना, लगी फिर होड़
विकल आगी पर तृणों के मोल की बकवास
भट्टियाँ हैं, हम शान्ति-रक्षक हैं
क्यों विकास करे भड़कता विश्व सत्यानाश !
वेद की-सी वाणियों-सी निम्नगा की दौड़
ऋषि-गुहा-संकल्प से ऊँचे उठे नगराज
घूमती धरती, सिसकती प्राण वाली साँस
श्याम तुमको खोजती, बोली विवश वह आज।
आज बल से, मधुर बलि की, यों छिड़े फिर होड़
जगत में उभरें अमित निर्माण, फिर निर्माण,
श्वास के पंखे झलें, ले एक और हिलोर
जहाँ व्रजवासिनि पुकारें वहाँ भेज त्राण।
हैं तुम्हारे साथ वंशी के उठे से वंश
और अपमानित उठा रक्खे अधर पर गान!
रस बरस उट्ठा रसा से कसमसाहट ले
खुल गये हैं कान आशातीत आहट ले।
यह उठी आराधिका सी राधिका रसराज
विकल यमुना के स्वरों फिर बीन बोली आज!
क्षुधित फण पर क्रुधित फणि की नृत्य कर गणतंत्र
सर्जना के तन्त्र ले, मधु-अर्चना के मन्त्र!
आज कोई विश्व-दैत्य तुम्हें चुनौती दे
औ महाभारत न हो पाये सखे! सुकुमार
बलवती अक्षौहिणियाँ विश्व-नाश करें
शस्त्र मैं लूँगा नहीं की कर सको हुँकार।
किन्तु प्रण की, प्रण की बाज़ी जगे उस दिन
हो कि इस भू-भाग पर ही जिस किसी का वार!
तब हथेली गर्विताएँ, कोटि शिर-गण देख
विजय पर हँस कर मनावें लाड़ला त्यौहार।
आज प्राण वसुन्धरा पर यों बिके से हैं
मरण के संकेत जीवन पर लिखे से हैं
मृत्यु की कीमत चुकायेंगे सखे ! मय सूद
दृष्टि पर हिम शैल हो, हर साँस में बारूद।
जग उठे नेपाल प्रहरी, हँस उठे गन्धार
उदधि-ज्वारों उमड़ आय वसुन्धरा में प्यार
अभय वैरागिन प्रतीक्षा अमर बोले बोल
एशिया की गोप-बाला उठें वेणी खोल!
नष्ट होने दो सखे! संहार के सौ काम
वेणु लो, गूँजे धरा, मेरे सलोने श्याम।।
यह अमर निशानी किसकी है? – माखन लाल चतुर्वेदी (36)
यह अमर निशानी किसकी है?
बाहर से जी, जी से बाहर-
तक, आनी-जानी किसकी है?
दिल से, आँखों से, गालों तक-
यह तरल कहानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
रोते-रोते भी आँखें मुँद-
जाएँ, सूरत दिख जाती है,
मेरे आँसू में मुसक मिलाने
की नादानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
सूखी अस्थि, रक्त भी सूखा
सूखे दृग के झरने
तो भी जीवन हरा ! कहो
मधु भरी जवानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
रैन अँधेरी, बीहड़ पथ है,
यादें थकीं अकेली,
आँखें मूँदें जाती हैं
चरणों की बानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
आँखें झुकीं पसीना उतरा,
सूझे ओर न ओर न छोर,
तो भी बढ़ूँ, खून में यह
दमदार रवानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
मैंने कितनी धुन से साजे
मीठे सभी इरादे
किन्तु सभी गल गए, कि
आँखें पानी-पानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
जी पर, सिंहासन पर,
सूली पर, जिसके संकेत चढ़ूँ
आँखों में चुभती-भाती
सूरत मस्तानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?
कैदी और कोकिला – माखन लाल चतुर्वेदी (37)
क्या गाती हो?
क्यों रह-रह जाती हो?
कोकिल बोलो तो!
क्या लाती हो?
सन्देशा किसका है?
कोकिल बोलो तो!
ऊँची काली दीवारों के घेरे में,
डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में,
जीने को देते नहीं पेट भर खाना,
मरने भी देते नहीं, तड़प रह जाना!
जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है,
शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है?
हिमकर निराश कर चला रात भी काली,
इस समय कालिमामयी जगी क्यूँ आली?
क्यों हूक पड़ी?
वेदना-बोझ वाली-सी;
कोकिल बोलो तो!
बन्दी सोते हैं, है घर-घर श्वासों का,
दिन के दुख का रोना है निश्वासों का,
अथवा स्वर है लोहे के दरवाजों का,
बूटों का, या सन्तरी की आवाजों का,
या गिनने वाले करते हाहाकार।
सारी रातें है-एक, दो, तीन, चार-!
मेरे आँसू की भरीं उभय जब प्याली,
बेसुर! मधुर क्यों गाने आई आली?
क्या हुई बावली?
अर्द्ध रात्रि को चीखी,
कोकिल बोलो तो!
किस दावानल की
ज्वालाएँ हैं दीखीं?
कोकिल बोलो तो!
निज मधुराई को कारागृह पर छाने,
जी के घावों पर तरलामृत बरसाने,
या वायु-विटप-वल्लरी चीर, हठ ठाने
दीवार चीरकर अपना स्वर आजमाने,
या लेने आई इन आँखों का पानी?
नभ के ये दीप बुझाने की है ठानी!
खा अन्धकार करते वे जग रखवाली,
क्या उनकी शोभा तुझे न भाई आली?
तुम रवि-किरणों से खेल,
जगत को रोज जगाने वाली,
कोकिल बोलो तो!
क्यों अर्द्ध रात्रि में विश्व
जगाने आई हो? मतवाली
कोकिल बोलो तो!
दूबों के आँसू धोती रवि-किरनों पर,
मोती बिखराती विन्ध्या के झरनों पर,
ऊँचे उठने के व्रतधारी इस वन पर,
ब्रह्माण्ड कँपाती उस उद्दण्ड पवन पर,
तेरे मीठे गीतों का पूरा लेखा,
मैंने प्रकाश में लिखा सजीला देखा।
तब सर्वनाश करती क्यों हो,
तुम, जाने या बेजाने?
कोकिल बोलो तो!
क्यों तमोपत्र पत्र विवश हुई,
लिखने चमकीली तानें?
कोकिल बोलो तो!
क्या? देख न सकती जंजीरों का गहना?
हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश-राज का गहना,
कोल्हू का चरक चूँ? जीवन की तान,
मिट्टी पर अँगुलियों ने लिक्खे गान?
हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ,
खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कूँआ।
दिन में करूणा क्यों जगे, रूलानेवाली,
इसलिए रात में गजब ढा रही आली?
इस शान्त समय में,
अन्धकार को बेध, रो रही क्यों हो?
कोकिल बोलो तो!
चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज
इस भाँति बो रही क्यों हो?
कोकिल बोलो तो!
काली तू, रजनी भी काली,
शासन की करनी भी काली,
काली लहर कल्पना काली,
मेरी काल कोठरी काली,
टोपी काली कमली काली,
मेरी लोह-शृंखला काली,
पहरे की हुंकृति की व्याली,
तिस पर है गाली, ऐ आली!
इस काले संकट-सागर पर
मरने की, मदमाती!
कोकिल बोलो तो!
अपने चमकीले गीतों को
क्योंकर हो तैराती!
कोकिल बोलो तो!
तेरे माँगे हुए न बैना,
री, तू नहीं बन्दिनी मैना,
न तू स्वर्ण-पिंजड़े की पाली,
तुझे न दाख खिलाये आली!
तोता नहीं; नहीं तू तूती,
तू स्वतन्त्र, बलि की गति कूती
तब तू रण का ही प्रसाद है,
तेरा स्वर बस शंखनाद है।
दीवारों के उस पार!
या कि इस पार दे रही गूँजें?
हृदय टटोलो तो!
त्याग शुक्लता,
तुझ काली को, आर्य-भारती पूजे,
कोकिल बोलो तो!
तुझे मिली हरियाली डाली,
मुझे नसीब कोठरी काली!
तेरा नभ भर में संचार,
मेरा दस फुट का संसार!
तेरे गीत कहावें वाह,
रोना भी है मुझे गुनाह!
देख विषमता तेरी मेरी,
बजा रही तिस पर रण-भेरी!
इस हुंकृति पर,
अपनी कृति से और कहो क्या कर दूँ?
कोकिल बोलो तो!
मोहन के व्रत पर,
प्राणों का आसव किसमें भर दूँ!
कोकिल बोलो तो !
फिर कुहू! अरे क्या बन्द न होगा गाना?
इस अंधकार में मधुराई दफनाना?
नभ सीख चुका है कमज़ोरों को खाना,
क्यों बना रही अपने को उसका दाना?
फिर भी करूणा गाहक बन्दी सोते हैं,
स्वप्नों में स्मृतियों की श्वासें धोते हैं!
इन लोह-सीखचों की कठोर पाशों में
क्या भर देगी? बोलो निद्रित लाशों में?
क्या? घुस जायेगा रूदन
तुम्हारा नि:श्वासों के द्वारा,
कोकिल बोलो तो!
और सवेरे हो जायेगा,
उलट-पुलट जग सारा,
कोकिल बोलो तो!
तुम मिले – माखन लाल चतुर्वेदी (38)
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!
भूलती-सी जवानी नई हो उठी,
भूलती-सी कहानी नई हो उठी,
जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी,
बालपन की रवानी नई हो उठी।
किन्तु रसहीन सारे बरस रसभरे
हो गए जब तुम्हारी छटा भा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।
घनों में मधुर स्वर्ण-रेखा मिली,
नयन ने नयन रूप देखा, मिली-
पुतलियों में डुबा कर नज़र की कलम
नेह के पृष्ठ को चित्र-लेखा मिली;
बीतते-से दिवस लौटकर आ गए
बालपन ले जवानी संभल आ गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।
तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई,
चुंबनों, सावंली-सी घटा छा गई,
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण
पर गगन से उतर चंचला आ गई।
प्राण का दान दे, दान में प्राण ले
अर्चना की अमर चाँदनी छा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।
ये प्रकाश ने फैलाये हैं – माखन लाल चतुर्वेदी (39)
ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में
अन्धकार का अमित कोष भर आया फैली व्याली में
ख़ाली में उनका निवास है, हँसते हैं, मुसकाता हूँ मैं
ख़ाली में कितने खुलते हो, आँखें भर-भर लाता हूँ मैं
इतने निकट दीख पड़ते हो वन्दन के, बह जाता हूँ मैं
संध्या को समझाता हूँ मैं, ऊषा में अकुलाता हूँ मैं
चमकीले अंगूर भर दिये दूर गगन की थाली में
ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में।।
पत्र-पत्र पर, पुष्प-पुष्प पर कैसे राज रहे हो तुम
नदियों की बहती धारा पर स्थिर कि विराज रहे हो तुम
चिड़ियाँ फुदकीं, कलियाँ चटकीं, फूल झरे हैं, हारे हैं
पर शाखाओं के आँचल भी भरे-भरे हैं, प्यारे हैं।
तुम कहते हो यह मैंने शृंगार किया दीवाली में।।
ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर देख कर ख़ाली में।।
चहल-पहल हलचल का बल फल रहा अनोखी साँसों में
तुम कैसे निज को गढ़ते हो भोलेपन की आसों में
उनकी छवि, मेरे रवि जैसी, ऊग उठी विश्वासों में
कितने प्रलय फेरियाँ देते, उनके नित्य विलासों में
यह उगन, यह खिलन धन्य है माली! उस पामाली में।।
ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में।।
जवानी – माखन लाल चतुर्वेदी (40)
प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी!
कौन कहता है कि तू
विधवा हुई, खो आज पानी?
चल रहीं घड़ियाँ,
चले नभ के सितारे,
चल रहीं नदियाँ,
चले हिम – खंड प्यारे;
चल रही है साँस,
फिर तू ठहर जाये?
दो सदी पीछे कि
तेरी लहर जाये?
पहन ले नर – मुंड – माला,
उठ, स्वमुंड सुमेव कर ले;
भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी
प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी!
द्वार बलि का खोल
चल, भूडोल कर दें,
एक हिम – गिरि एक सिर
का मोल कर दें
मसल कर, अपने
इरादों-सी, उठा कर,
दो हथेली हैं कि
पृथ्वी गोल कर दें?
रक्त है? या है नसों में क्षुद्र पानी!
जाँच कर, तू सीस दे – देकर जवानी?
वह कली के गर्भ से, फल-
रूप में, अरमान आया!
देख तो मीठा इरादा, किस
तरह, सिर तान आया!
डालियों ने भूमि पर लटका
दिये फल, देख आली !
मस्तकों को दे रही
संकेत कैसे, वृक्ष-डाली!
फल दिये? या सिर दिये? उस की कहानी-
गूँथकर युग में, बताती चल जवानी!
श्वान के सिर हो-
चरण तो चाटता है!
भोंक ले – क्या सिंह
को वह डाँटता है?
रोटियाँ खायीं कि
साहस खा चुका है,
प्राणि हो, पर प्राण से
वह जा चुका है।
तुम न खोलो ग्राम – सिंहों मे भवानी!
विश्व की अभिमन मस्तानी जवानी!
ये न मग हैं, तव
चरण की रखियाँ हैं,
बलि दिशा की अमर
देखा-देखियाँ हैं।
विश्व पर, पद से लिखे
कृति लेख हैं ये,
धरा तीर्थों की दिशा
की मेख हैं ये।
प्राण-रेखा खींच दे, उठ बोल रानी,
री मरण के मोल की चढ़ती जवानी।
टूटता-जुड़ता समय
भूगोल आया,
गोद में मणियाँ समेट
खगोल आया,
क्या जले बारूद?-
हिम के प्राण पाये!
क्या मिला? जो प्रलय
के सपने न आये।
धरा? – यह तरबूज
है दो फाँक कर दे,
चढ़ा दे स्वातन्त्रय-प्रभु पर अमर पानी।
विश्व माने – तू जवानी है, जवानी!
लाल चेहरा है नहीं-
फिर लाल किसके?
लाल खून नहीं?
अरे, कंकाल किसके?
प्रेरणा सोयी कि
आटा – दाल किसके?
सिर न चढ़ पाया
कि छाया – माल किसके?
वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी,
धूल है जो जग नहीं पायी जवानी।
विश्व है असि का?-
नहीं संकल्प का है;
हर प्रलय का कोण
काया – कल्प का है;
फूल गिरते, शूल
शिर ऊँचा लिये हैं;
रसों के अभिमान
को नीरस किये हैं।
खून हो जाये न तेरा देख, पानी,
मर का त्यौहार, जीवन की जवानी।
लड्डू ले लो -माखन लाल चतुर्वेदी
ले लो दो आने के चार
लड्डू राज गिरे के यार
यह हैं धरती जैसे गोल
ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल
इनके मीठे स्वादों में ही
बन आता है इनका मोल
दामों का मत करो विचार
ले लो दो आने के चार।
लोगे खूब मज़ा लायेंगे
ना लोगे तो ललचायेंगे
मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
हँसी खुशी से सब खायेंगे
इनमें बाबू जी का प्यार
ले लो दो आने के चार।
कुछ देरी से आया हूँ मैं
माल बना कर लाया हूँ मैं
मौसी की नज़रें इन पर हैं
फूफा पूछ रहे क्या दर है
जल्द ख़रीदो लुटा बजार
ले लो दो आने के चार।
जीवन, यह मौलिक महमानी – माखन लाल चतुर्वेदी (41)
जीवन, यह मौलिक महमानी!
खट्टा, मीठा, कटुक, केसला
कितने रस, कैसी गुण-खानी
हर अनुभूति अतृप्ति-दान में
बन जाती है आँधी-पानी
कितना दे देते हो दानी
जीवन की बैठक में, कितने
भरे इरादे दायें-बायें
तानें रुकती नहीं भले ही
मिन्नत करें कि सौहे खायें!
रागों पर चढ़ता है पानी।।
जीवन, यह मौलिक महमानी।।
ऊब उठें श्रम करते-करते
ऐसे प्रज्ञाहीन मिलेंगे
साँसों के लेते ऊबेंगे
ऐसे साहस-क्षीण मिलेगे
कैसी है यह पतित कहानी?
जीवन, यह मौलिक महमानी।।
ऐसे भी हैं, श्रम के राही
जिन पर जग-छवि मँडराती है
ऊबें यहाँ मिटा करती हैं
बलियाँ हैं, आती-जाती हैं।
अगम अछूती श्रम की रानी!
जीवन, यह मौलिक महमानी।।
समय के समर्थ अश्व – माखन लाल चतुर्वेदी (42)
समय के समर्थ अश्व मान लो
आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।
छोड़ दो पहाड़ियाँ, उजाड़ियाँ
तुम उठो कि गाँव-गाँव ही चलो।।
रूप फूल का कि रंग पत्र का
बढ़ चले कि धूप-छाँव ही चलो।।
समय के समर्थ उश्व मान लो
आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।।
वह खगोल के निराश स्वप्न-सा
तीर आज आर-पार हो गया
आँधियों भरे अ-नाथ बोल तो
आज प्यार! क्यों उदार हो गया?
इस मनुष्य का ज़रा मज़ा चखो
किन्तु यार एक दाँव ही चलो।।
समय के समर्थ अश्व मान लो
आज बन्धु ! चार पाँव ही चलो।।
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं – माखन लाल चतुर्वेदी (43)
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको
बोल-बोल में बोल उठी मन की चिड़िया
नभ के ऊँचे पर उड़ जाना है भला-भला!
पंखों की सर-सर कि पवन की सन-सन पर
चढ़ता हो या सूरज होवे ढला-ढला !
यह उड़ान, इस बैरिन की मनमानी पर
मैं निहाल, गति स्र्द्ध नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।
सूरज का संदेश उषा से सुन-सुनकर
गुन-गुनकर, घोंसले सजीव हुए सत्वर
छोटे-मोटे, सब पंख प्रयाण-प्रवीण हुए
अपने बूते आ गये गगन में उतर-उतर
ये कलरव कोमल कण्ठ सुहाने लगते हैं
वेदों की झंझावात नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।
जीवन के अरमानों के काफिले कहीं, ज्यों
आँखों के आँगन से जी घर पहुँच गये
बरसों से दबे पुराने, उठ जी उठे उधर
सब लगने लगे कि हैं सब ये बस नये-नये।
जूएँ की हारों से ये मीठे लगते हैं
प्राणों की सौ सौगा़त नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।
ऊषा-सन्ध्या दोनों में लाली होती है
बकवासनि प्रिय किसकी घरवाली होती है
तारे ओढ़े जब रात सुहानी आती है
योगी की निस्पृह अटल कहानी आती है।
नीड़ों को लौटे ही भाते हैं मुझे बहुत
नीड़ो की दुश्मन घात नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।
वायु – माखन लाल चतुर्वेदी (44)
चल पडी चुपचाप सन-सन-सन हवा,
डालियों को यों चिढाने-सी लगी,
आंख की कलियां, अरी, खोलो जरा,
हिल स्वपतियों को जगाने-सी लगी,
पत्तियों की चुटकियां झट दीं बजा,
डालियां कुछ ढुलमुलाने-सी लगीं।
किस परम आनंद-निधि के चरण पर,
विश्व-सांसें गीत गाने-सी लगीं।
जग उठा तरु-वृंद-जग, सुन घोषणा,
पंछियों में चहचहाट मच गई,
वायु का झोंका जहां आया वहां-
विश्व में क्यों सनसनाहट मच गई?
उठ महान -मा
खन लाल चतुर्वेदी उठ महान! तूने अपना स्वर,
यों क्यों बेच दिया?
प्रज्ञा दिग्वसना, कि प्राण का,
पट क्यों खेंच दिया?
वे गाये, अनगाये स्वर सब,
वे आये, बन आये वर सब,
जीत-जीत कर, हार गये से,
प्रलय बुद्धिबल के वे घर सब!
तुम बोले, युग बोला अहरह,
गंगा थकी नहीं प्रिय बह-बह,
इस घुमाव पर, उस बनाव पर,
कैसे क्षण थक गये, असह-सह!
पानी बरसा,
बाग़ ऊग आये अनमोले,
रंग-रँगी पंखुड़ियों ने,
अन्तर तर खोले;
पर बरसा पानी ही था,
वह रक्त न निकला!
सिर दे पाता, क्या
कोई अनुरक्त न निकला?
प्रज्ञा दिग्वसना? कि प्राण का पट क्यों खेंच दिया!
उठ महान तूने अपना स्वर यों क्यों बेच दिया!
जाड़े की साँझ -माखन लाल चतुर्वेदी
किरनों की शाला बन्द हो गई चुप-चपु
अपने घर को चल पड़ी सहस्त्रों हँस-हँस
उ ण्ड खेलतीं घुल-मिल होड़ा-होड़ी
रोके रंगों वाली छबियाँ? किसका बस!
ये नटखट फिर से सुबह-सुबह आवेंगी
पंखनियाँ स्वागत-गीत कि जब गावेंगी।
दूबों के आँसू टपक उठेंगे ऐसे
हों हर्ष वायु से बेक़ाबू- से जैसे।
कलियाँ हँस देंगी
फूलों के स्वर होगा
आगन्तुक-दल की आँखों का घर होगा,
ऊँचे उठना कलिकाओं का वर होगा
नीचे गिरना फूलों का ईश्वर होगा।
शाला चमकेगी फिर ब्रह्माण्ड-भवन की
खेलेंगी आँख-मिचौनी नटखट मन की।
इनके रूपों में नया रंग-सा होगा
सोई दुनिया का स्वपन दंग-सा होगा
यह सन्ध्या है, पक्षी चुप्पी साधेंगे
किरणों की शाला बन्द हो गई- चुप-चुप।
वरदान या अभिशाप? -माखन लाल चतुर्वेदी
कौन पथ भूले, कि आये !
स्नेह मुझसे दूर रहकर
कौनसे वरदान पाये?
यह किरन-वेला मिलन-वेला
बनी अभिशाप होकर,
और जागा जग, सुला
अस्तित्व अपना पाप होकर;
छलक ही उट्ठे, विशाल !
न उर-सदन में तुम समाये।
उठ उसाँसों ने, सजन,
अभिमानिनी बन गीत गाये,
फूल कब के सूख बीते,
शूल थे मैंने बिछाये।
शूल के अमरत्व पर
बलि फूल कर मैंने चढ़ाये,
तब न आये थे मनाये-
कौन पथ भूले, कि आये?
दीप से दीप जले – माखन लाल चतुर्वेदी (45)
सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।
उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।
वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।
युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।
गिरि पर चढ़ते, धीरे-धीर – माखन लाल चतुर्वेदी (46)
सूझ! सलोनी, शारद-छौनी,
यों न छका, धीरे-धीरे!
फिसल न जाऊँ, छू भर पाऊँ,
री, न थका, धीरे-धीरे!
कम्पित दीठों की कमल करों में ले ले,
पलकों का प्यारा रंग जरा चढ़ने दे,
मत चूम! नेत्र पर आ, मत जाय असाढ़,
री चपल चितेरी! हरियाली छवि काढ़!
ठहर अरसिके, आ चल हँस के,
कसक मिटा, धीरे-धीरे!
झट मूँद, सुनहाली धूल, बचा नयनों से,
मत भूल, डालियों के मीठे बयनों से,
कर प्रकट विश्व-निधि रथ इठलाता, लाता
यह कौन जगत के पलक खोलता आता?
तू भी यह ले, रवि के पहले,
शिखर चढ़ा, धीरे-धीरे।
क्यों बाँध तोड़ती उषा, मौन के प्रण के?
क्यों श्रम-सीकर बह चले, फूल के, तृण के?
किसके भय से तोरण त्रस्त-वृन्द लगाते?
क्यों अरी अराजक कोकिल, स्वागत गाते?
तू मत देरी से, रण-भेरी से,
शिखर गुँजा, धीरे-धीरे।
फट पड़ा ब्रह्य! क्या छिपें? चलो माया में,
पाषाणों पर पंखे झलती छाया में,
बूढ़े शिखरों के बाल-तृणों में छिप के,
झरनों की धुन पर गायें चुपके-चुपके,
हाँ, उस छलिया की, साँवलिया की,
टेर लगे, धीरे-धीरे।
त्रस्त-लता सींखचे, शिला-खंड दीवार,
गहरी सरिता, है बन्द यहाँ का द्वार,
बोले मयूर, जंजीर उठी झनकार,
चीते की बोली, पहरे का हुशियार !
मैं आज कहाँ हूँ, जान रहा हूँ,
बैठ यहाँ, धीरे-धीरे।
आपत का शासन, अमियों? अध-भूखे,
चक्कर खाता हूँ सूझ और मैं सूखे,
निर्द्वन्द्व, शिला पर भले रहूँ आनन्दी,
हो गया क़िन्तु सम्राट शैल का बन्दी।
तू त्रस्त-पुंजों, उलझी कुंजों से
राह बता, धीरे-धीरे।
रह-रह डरता हूँ, मैं नौका पर चढ़ते,
डगमग मुक्ति की धारा में, यों बढ़ते,
यह कहाँ ले चली कौन निम्नगा धन्या !
वृन्दावन-वासिनी है क्या यह रवि-कन्या?
यों मत भटकाये, होड़ लगाये,
बहने दे, धीरे-धीरे
और कंस के बन्दी से कुछ
कहने दे, धीरे-धीरे !
तुम्हारा चित्र – माखन लाल चतुर्वेदी (47)
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया
कुछ नीले कुछ श्वेत गगन पर
हरे-हरे घन श्यामल वन पर
द्रुत असीम उद्दण्ड पवन पर
चुम्बन आज पवित्र बन गया,
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।
तुम आए, बोले, तुम खेले
दिवस-रात्रि बांहों पर झेले
साँसों में तूफ़ान सकेले
जो ऊगा वह मित्र बन गया,
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।
ये टिमटिम-पंथी ये तारे
पहरन मोती जड़े तुम्हारे
विस्तृत! तुम जीते हम हारे!
चाँद साथ सौमित्र बन गया।
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।
यह किसका मन डोला – माखन लाल चतुर्वेदी (48)
यह किसका मन डोला?
मृदुल पुतलियों के उछाल पर,
पलकों के हिलते तमाल पर,
नि:श्वासों के ज्वाल-जाल पर,
कौन लिख रहा व्यथा कथा?
किसका धीरज हाँ बोला?
किस पर बरस पड़ीं यह घड़ियाँ
यह किसका मन डोला?
कस्र्णा के उलझे तारों से,
विवश बिखरती मनुहारों से,
आशा के टूटे द्वारों से-
झाँक-झाँककर, तरल शाप में-
किसने यों वर घोला
कैसे काले दाग़ पड़ गये!
यह किसका मन डोला?
फूटे क्यों अभाव के छाले,
पड़ने लगे ललक के लाले,
यह कैसे सुहाग पर ताले!
अरी मधुरिमा पनघट पर यह-
घट का बंधन खोला?
गुन की फाँसी टूटी लखकर
यह किसका मन डोला?
अंधकार के श्याम तार पर,
पुतली का वैभव निखारकर,
वेणी की गाँठें सँवारकर,
चाँद और तम में प्रिय कैसा-
यह रिश्ता मुँह-बोला?
वेणु और वेणी में झगड़ा
यह किसका मन डोला?
बेचारा गुलाब था चटका
उससे भूमि-कम्प का झटका
लेखा, और सजनि घट-घट का!
यह धीरज, सतपुड़ा शिखर-
सा स्थिर, हो गया हिंडोला,
फूलों के रेशे की फाँसी
यह किसका मन डोला?
एक आँख में सावन छाया,
दूजी में भादों भर आया
घड़ी झड़ी थी, झड़ी घड़ी थी
गरजन, बरसन, पंकिल, मलजल,
छुपा सुवर्ण खटोला
रो-रो खोया चाँद हाय री?
यह किसका मन डोला?
मैं बरसी तो बाढ़ मुझी में?
दीखे आँखों, दूखे जी में
यह दूरी करनी, कथनी में
दैव, स्नेह के अन्तराल से
गरल गले चढ़ बोला
मैं साँसों के पद सुहला ली
यह किसका मन डोला?
यौवन का पागलपन – माखन लाल चतुर्वेदी (49)
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
सपना है, जादू है, छल है ऐसा
पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा,
मिट-मिटकर दुनिया देखे रोज़ तमाशा।
यह गुदगुदी, यही बीमारी,
मन हुलसावे, छीजे काया।
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
वह आया आँखों में, दिल में, छुपकर,
वह आया सपने में, मन में, उठकर,
वह आया साँसों में से रुक-रुककर।
हो न पुरानी, नई उठे फिर
कैसी कठिन मोहनी माया!
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
साँस के प्रश्नचिन्हों, लिखी स्वर-कथा – माखन लाल चतुर्वेदी (50)
साँस के प्रश्न-चिह्नों, लिखी स्वर-कथा
क्या व्यथा में घुली, बावली हो गई!
तारकों से मिली, चन्द्र को चूमती
दूधिया चाँदनी साँवली हो गई!
खेल खेली खुली, मंजरी से मिली
यों कली बेकली की छटा हो गई
वृक्ष की बाँह से छाँह आई उतर
खेलते फूल पर वह घटा हो गई।
वृत्त लड़ियाँ बना, वे चटकती हुई
खूब चिड़ियाँ चली, शीश पै छा गई
वे बिना रूप वाली, रसीली, शुभा
नन्दिता, वन्दिता, वायु को भा गई।
चूँ चहक चुपचपाई फुदक फूल पर
क्या कहा वृक्ष ने, ये समा क्यों गई
बोलती वृन्त पर ये कहाँ सो गई
चुप रहीं तो भला प्यार को पा गई।
वह कहाँ बज उठी श्याम की बाँसुरी
बोल के झूलने झूल लहरा उठी
वह गगन, यह पवन, यह जलन, यह मिलन
नेह की डाल से रागिनी गा उठी!
ये शिखर, ये अँगुलियाँ उठीं भूमि की
क्या हुआ, किसलिए तिलमिलाने लगी
साँस क्यों आस से सुर मिलाने लगी
प्यास क्यों त्रास से दूर जाने लगी।
शीष के ये खिले वृन्द मकरन्द के
लो चढ़ायें नगाधीश के नाथ को
द्रुत उठायें, चलायें, चढ़ायें, मगन
हाथ में हाथ ले, माथ पर माथ को।
मुझे रोने दो -माखन लाल चतुर्वेदी
भाई, छेड़ो नहीं, मुझे
खुलकर रोने दो।
यह पत्थर का हृदय
आँसुओं से धोने दो।
रहो प्रेम से तुम्हीं
मौज से मजुं महल में,
मुझे दुखों की इसी
झोपड़ी में सोने दो।
कुछ भी मेरा हृदय
न तुमसे कह पावेगा
किन्तु फटेगा, फटे
बिना क्या रह पावेगा,
सिसक-सिसक सानंद
आज होगी श्री-पूजा,
बहे कुटिल यह सौख्य,
दु:ख क्यों बह पावेगा?
वारूँ सौ-सौ श्वास
एक प्यारी उसांस पर,
हारूँ अपने प्राण, दैव,
तेरे विलास पर
चलो, सखे, तुम चलो,
तुम्हारा कार्य चलाओ,
लगे दुखों की झड़ी
आज अपने निराश पर!
हरि खोया है? नहीं,
हृदय का धन खोया है,
और, न जाने वहीं
दुरात्मा मन खोया है।
किन्तु आज तक नहीं,
हाय, इस तन को खोया,
अरे बचा क्या शेष,
पूर्ण जीवन खोया है!
पूजा के ये पुष्प
गिरे जाते हैं नीचे,
वह आँसू का स्रोत
आज किसके पद सींचे,
दिखलाती, क्षणमात्र
न आती, प्यारी किस भांति
उसे भूतल पर खीचें।
तुम मन्द चलो – माखन लाल चतुर्वेदी (51)
तुम मन्द चलो,
ध्वनि के खतरे बिखरे मग में-
तुम मन्द चलो।
सूझों का पहिन कलेवर-सा,
विकलाई का कल जेवर-सा,
घुल-घुल आँखों के पानी में-
फिर छलक-छलक बन छन्द चलो।
पर मन्द चलो।
प्रहरी पलकें? चुप, सोने दो!
धड़कन रोती है? रोने दो!
पुतली के अँधियारे जग में-
साजन के मग स्वच्छन्द चलो।
पर मन्द चलो।
ये फूल, कि ये काँटे आली,
आये तेरे बाँटे आली!
आलिंगन में ये सूली हैं-
इनमें मत कर फर-फन्द चलो।
तुम मन्द चलो।
ओठों से ओठों की रूठन,
बिखरे प्रसाद, छुटे जूठन,
यह दण्ड-दान यह रक्त-स्नान,
करती चुपचाप पसंद चलो।
पर मन्द चलो।
ऊषा, यह तारों की समाधि,
यह बिछुड़न की जगमगी व्याधि,
तुम भी चाहों को दफनाती,
छवि ढोती, मत्त गयन्द चलो।
पर मन्द चलो।
सारा हरियाला, दूबों का,
ओसों के आँसू ढाल उठा,
लो साथी पाये-भागो ना,
बन कर सखि, मत्त मरंद चलो।
तुम मन्द चलो।
ये कड़ियाँ हैं, ये घड़ियाँ हैं
पल हैं, प्रहार की लड़ियाँ हैं
नीरव निश्वासों पर लिखती-
अपने सिसकन, निस्पन्द चलो।
तुम मन्द चलो।
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